दस दिन का विपश्यना शिविर करने के बाद (लगभग 9 साल बाद) ये मेरा तीसरा शिविर था, दसवें दिन हमें पता चला कि गुरुजी (गोयंका जी ) बुद्ध पूर्णिमा के दिन ग्लोबल पगौड़ा आएंगे। किस समय, कितनी देर रहेंगे ये पता नहीं था। पर जैसे ही मेरी माँ ने मुझे ये खबर सुनाई, मेरी खुशी कि सीमा ही नहीं थी। ये मेरा तीसरा शिविर था। इस शिविर में मैंने अपने बारे में बहुत खुछ सीखा था। खुद को जंजालों से पूरी तरह नहीं तो थोड़ा ही सही, खुद ही, मुक्त भी किया था। मुझे मेरी चिंताओं और खुशी में समता मे रहना, मैंने खुद को अपने बलबूते पर सिखाया था। दस दिन (झूठ न बोलूँ तो ये पहली बार था जब मैंने दसों दिन बात नहीं कि और सारे नीयमों का पालन किया ) मुझे खुद में खुद के कारण सकारात्मक परिवर्तन देख कर अच्छा लगा। तो ऐसे समय जब मुझे पता चला कि शायद गुरुजी को देखने का मौका मिले, तो हमने सोचा की हमारी कोशिश, सारे कामों को सारे कामों को साथ साथ करते हुये यह भी रहेगी की उनको एक बार देखा जाए। तो हम ईगतपुरी से पुणे आये और दिन बीतते गए। हम रोज़ दो घंटे विपश्यना करने की कोशिश करते और 50 % हमें सफलता भी मिली। हम अपने काम में पुणे में इतने व्यस्त रहे की 17 तारीख कब आई पता ही नहीं चला। इस बीच मैं बड़ी सतर्कता से खुद मे आए परिवर्तनों को देख रही थी और नोटिस भी कर रही थी। सतर्कता इसलिए थी, क्योंकि मैं ऐसे परिवार से हूँ जहां मेरे पिता, माँ, दीदी और अन्य परिवार के लोग झूठे कर्मकांडों पर विश्वास नहीं रखते। उनका सख्त विरोध भी करते हैं, और उन्हे स्पष्ट तौर पर दुनिया को दिखने में (जहाँ जरूरत पड़े) पीछे भी नहीं रहते।
मैं देख रही थी की क्या मुझमें सच में परिवर्तन हुआ है, या यह सिर्फ़ मेरा वहम है, जो अंधश्रद्धा तो नहीं। और मैंने देखा की उनमें से कुछ भी वहम नहीं था। जो परिवर्तन मेरे अंदर आए वो मुझे साफ़ दिखाई दिये, अथवा परिवर्तन नहीं हुआ है यह भी मैंने देखा। और बड़ी तटस्थता के साथ देखा कि “मुझमें यह परिवर्तन हुआ है, और यह नहीं हुआ है ”। कहीं guilty consciousness महसूस नहीं होने दिया।
तो जब “17 मे” को हम मुंबई के लिए रवाना हुए, और दोपहर तक वहाँ पहुंचे तो थक भी गए थे, और भूख भी लग आई थी। पापा के पुराने मित्र डेनियल भाई और हंसा बहन (भाई ओर बहन सम्बोधन गुजराती में किसी को आदर देते समय लगाया जाता है) के यहाँ रुके। अगले दिन के कार्यक्रम का हिसाब किताब किया तो पता चला, कि मुलुंड, जहाँ हम रुके थे वहाँ से ग्लोबल पगौड़ा जो Essellworld के पास था, जाने में 3 घंटे लगेंगे, और वहाँ अगर हमें समय पर पहुँचना है तो हमें 4 बजे ही उठाना पड़ेगा। अगर मैं पहले कि होती, तो 4 बजे उठने का समय सुनकर सोचती कि चलो आज तो रात भर का जागरण है, या फ़िर माँ मुझे बड़े ही मुश्किल से उठाती। पर सुबह 4 बजे उठाने कि आदत मुझे विपश्यना शिविर मे ही लग चुकी थी इसलिए मुझे सुबह उठाने में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई।
हम तैयार हो कर बस स्टैंड गए और वाहब से गोराई के लिए सीधी जाने वाली बस पकड़ ली। Coincidence था कि जाते समय ही हमें दो बहने और, जो वहीं जा रही थी मिल गईं। और 3 घंटे का रास्ता हमने साथ ही तय किया। मुंबई की उमस भरी गर्मी में जब हम गोराई beach पर उतरे तो वहाँ कि तीखी कच्ची मछ्ली कि गंध ने बरबस हाथ को नाक पर आने के लिए मजबूर कर दिया। टिकिट काउंटर पर भी दुपट्टे से अपना नाक दबाये और बीच बीच में हाथ हटकर यह देखते कि कोशिश करते हुए की गंध चली गई क्या? किसी तरह टिकिट ले ली।
जब स्टीमर पर बैठे तो एकाएक सामने मेरी विपश्यना शिविर की साथी दिख गई। वो भी अपनी माँ जिन्होने कई बार शिविर किया है और अब व्यवस्थापकों में भी हैं, मैंने उन्हे अपने पास बैठने का न्योता दिया, और फ़िर फोटो session शुरू हुआ।
पगौड़ा और उसकी भव्यता हमें दूर से ही दिखाई दे रही थी। जैसे जैसे हम पास पहुँचने लगे वैसे वैसे मेरा excitement और बढ़ता गया। फ़िर ध्यान आया। “अरे मुझे तो समता में रहना है ”। पर समता में रहने का प्लान कहाँ चला गया पता नहीं, और फ़िर तो ऐसा लगा जैसे समुद्र की लहरों के साथ मुझमें भी तरंगे उठ रही हों। उन्हे और पगौड़ा दोनों को देखते हुये और मन ही मन खूब खुश होते हुए हम उस किनारे पहुंचे। जहाँ से एक तरफ का रास्ता Essellworld की तरफ जाता था, और एक पगौड़ा की तरफ। पगौड़ा की तरफ जाते हुये मुझे ध्यान आया की मुझे Essellworld जाने की बजाय पगौड़ा जाने में अंतरमन से खुशी हो रही थी। यह ग्लोबल पगौड़ा अपने में ही एक अजूबा है, इसकी भव्यता और सुंदरता के कारण तो है ही, Civil Engineering की द्रुष्टि से भी यह एक अप्रतीम नमूना है। इसके शुरुआत में Beams हैं जो पूरे ढांचे को सपोर्ट करती हैं, और उसके बाद कोई beam कोई pillar नहीं बनाया गया है। ये शायद मैं दुनिया का आठवाँ अजूबा देख रही थी। इतना भव्य कि आकाश में एक और आकाश नज़र आ रहा था, जिसमें सच में पक्षी भी उड़ रहे थे (ये सिर्फ़ अंदाज़ा ही कर सकते हैं कि वो पक्षी कबूतर रहे होंगे )। इस पगौड़े कि एक और खासियत यह है कि ये दुनिया का इकलौता पगौड़ा है जहाँ पूजा पाठ नहीं बल्कि कुछ रचनात्मक काम किया किए जाते हैं।
नाश्ता करने के बाद हम ध्यान के लिए बैठे। गुरुजी तीन बजे आने वाले थे। और उनके 1 घंटे के प्रवचन के बाद हमें छुट्टी मिलती। कहते हैं कि कोई काम अगर साथ में करो तो वो काम और अच्छे से होता है। शायद यह नीयम यहाँ भी लागू होता है। 3 घंटे का समय ध्यान करने में कैसे बीता, पता ही नहीं चला। हाँ, बीच बीच में एक- एक घंटे के अंतराल पर पाँच मिनट का विश्राम दिया जाता था, फ़िर दोपहर के खाने का भी विश्राम आया जो एक घंटे का था। खैर, समय बीता और गुरुजी के आने का समय पास आया। वहाँ के व्यवस्थापकों ने Mike पर घोषित किया कि गुरुजी के आने तक आप अपना ध्यान करना जारी रखें। पर वो कहाँ होना था। उनका यह कहना खत्म हुआ, कि मेरी दोनों आंखे खुली। अगल बगल देखा तो एक तरफ मेरी मित्र भी मेरी ही तरफ देख रही थी। हम दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए, और उसी क्षण हमने मन ही मन आर्य मौन कि समाप्ती की घोषणा कर दी। दूसरी तरफ देखा तो एक 30 - 35 साल की महिला अभी भी बड़े ज़ोरों शोरों से ध्यान करने में जुटी हुई थीं। उसे देख कर एक सेकंड के लिए लगा की, " अरे यह ठीक नहीं, मुझे भी ध्यान करते रहना चाहिए "। और मैंने फिर से अपनी आँखें बंद कर लीं। पर वह सिर्फ़ ध्यान करने की कोशिश भर थी। ध्यान कहाँ लाग्ने वाला था। मैंने आँखें फ़िर खोल दीं उसी समय पीछे कुछ शोर सा हुआ, और मैंने सोच की इस आर्य मौन के समय कहाँ से, और कौन शोर कर रहा है। पीछे देखा, तो भीड़ की भीड़ पगौड़ा के अंदर आ रही थी। जो लोग अंदर आए उनमें से कुछ ने शायद विपश्याना को शमझा हो, और जो ध्यान कर रहें हैं उन्हे दिक्कत न हो ऐसा सोचा हो। पर ज़्यादातर लोग ऐसे थे जिनहे विपश्याना से कोई सरोकार नहीं था। शायद पहली बार आए थे। खैर, इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं, शुरुआत तो पहली बार ही होती है। और मान लें की ये उनकी शुरुआत ही थी।
सभी से विनम्र विनती की गई कि, जब गूरुजी आयें तो सभी अपने अपने स्थान पर ही बैठे रहें।
पगौड़े में आठ दरवाज़े हैं और सभी दरवाजों के ऊपर हिन्दी व इंगलिश में उन्हें क्रमांकित किया गया है। मेरे ध्यान मे आया कि दरवाज़ा नंबर 1 दूसरे दरवाजों से थोड़ा बड़ा है। मैंने अनुमान लगाया कि शायद यहीं से गूरुजी आएंगे। और हुआ भी यही। एकाएक हॉल में एक हलचल सी मची, पर कोई भी अपनी जगह से उठा नहीं। देखा, तो एक कार्यकर्ता गूरुजी और उनकी पत्नी (इलायची देवी) दोनों को wheel chair पर लेकर आ रहे थे। मुझे यह पहले से ही पता था कि गूरुजी अब wheel chair पर ही आते जाते हैं। और जायज़ भी है। 87 कि उम्र में वो इतना सब कर प रहे हैं यही काफ़ी है। मुझे लगा था कि गूरुजी के आने पर मैं भाव विव्हल हो जाऊँगी और शायद मुझे रोना भी आए। पर मुझे रोना नहीं आया, हाँ उन्हे देख कर मुझे सच्चे मन से खुशी ज़रूर हुई ।
गूरुजी का प्रवचल एक घंटे चला जिसमें उन्होने बहुत सी बातें बताई। उन्होने विपश्याना नाम का मतलब, उसका इतिहास और उसके फायदे बताए।
विपश्याना का संधि विच्छेद करें (वैसे यह शब्द पुरातन भारत में इस्तेमाल होता था, और आप इसे अब किसी भी शब्दकोश में नहीं देखेंगे) तो ये दो भागों में टूटता है, एक "वि" दूसरा "पश्याना"। पश्याना अर्थात खुद को देखना और अगर वि जोड़ दिया तो अर्थ हुआ खुद को विशेष रूप से देखना। सुनने में ये एक बहुत ही साधारण अर्थ का शब्द लगता है, पर ध्यान दें तो खुद को देखना यही सबसे महत्वपूर्ण बात लगेगी। खुद कि बुराइयों और अच्छाइयों को देखना और मान लेना, पूरी तटस्थता के साथ, यही तो है विपश्याना। बात बहुत साधारण है। आप समाज में या खुद में बुराइयों को देखते हैं। Inferiority complex और superiority complex को पाल कर रखते हैं। जिस दिन बिना guilt महसूस किए हमने माना कि "हाँ, मुझमें यह बुराई है", उस दिन से वो समाज या व्यक्ति अपने स्तर पर उसे दूर करने की कोशिश करता है। जब तक माना ही नहीं तो सुधारना कैसा। हाँ, यहाँ एक और बात है। यहाँ आपको ही यह काम करना है। खुद को ही, खुद से लड़ना है। कोई भगवान या देवता (अगर है भी) तो वो आपको इन सभी परेशानियों से निकालने के लिए अवतरित नहीं होगा। इसलिए, थोड़ा कठिन है, आसान नहीं। दूसरा इसे कोई भी जाति या संप्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक हो, कर सकता है। क्योंकि, फ़िर से, इसमें कोई भगवान या संप्रदाय शामिल नहीं। कोई बाबा या भगत शामिल नहीं। आप खुद शामिल हैं, और कोई नहीं। मैंने यहाँ धर्म कि जगह संप्रदाय शब्द का इस्तेमाल कर रही हूँ। धर्म और संप्रदाय में ज़मीन आसमान का फर्क है। इस फर्क को बताने में मैं अभी नहीं जाऊँगी। नहीं तो दो पेज और लिखना पड़ेगा। विपश्याना का फायदा तो आप तब देखेंगे जब आप इसे खुद करेंगे। क्योंकि सभी इंसानों के व्यक्तिव के हिसाब से उनके अपने व्यक्तिगत फायदे या नुकसान होते हैं। क्योंकि उनके अपने अपने अलग अलग complexes भी होते हैं। मैं सोचती हूँ कि मैंने ये क्यों किया । मैं विपश्याना करने क्यों गई तो ध्यान आता है की इसमें मेरे परिवार के संस्कार मुझसे जुड़े हुये हैं। मेरी माँ , पिता, दादा, दादी, नानी चाचा चाची सभी धर्म निरपेक्ष, बेकार के कर्मकांडो के सख्त विरोधी रहे हैं और अपने स्तर पर उनके लिए जितना बन पड़ता है काम भी किया है। तो, जब मैंने सुना की इसकी क्या खूबियाँ हैं, तब मुझे यह सारी बातें जँची। और लगा की अपनी पूरी ज़िंदगी में से 10 दिन निकाल के जाना और कुछ नया सीखना बुरा नहीं। जहां ये तो पक्का था की फायदा हो न हो नुकसान नहीं होगा, इसलिए गई। ऐसा नहीं की ऊपर लिखी सारी बातें मैं पहली बार पढ़ या सुन रही हूँ। मैं शायद इन सभी विचारों के संपर्क में तब से हूँ जब से मैं माँ के पेट में थी। और जब से बोल्न और समझना सीखा तबसे इन एकता, सर्वधर्म समभाव, असंग्रहा की बातें मई अपने पापा और माँ से जानती आई हूँ। मुझे याद है रात में, पापा, मुझे मेरी दीदी और माँ सब के साथ बैठते और मेरी दीदी कोई एक साहित्य की (गाँधी, विनोबा या जयप्रकाश) पढ़ती और बीच बीच में जहां समझ नहीं आता वहाँ पूछती भी जाती। हाँ, मुझे वो कितना समझ में आता यह याद नहीं पर कान पर से होते हुये दिमाग में कुछ हलचल तो पैदा करता ही होगा।
पगौड़ा में गुरुजी के प्रवचन में वो अंत के समय बार बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि, इस विद्या को दूषित न होने देना, इस विद्या को किसी संप्रदाय के बाड़े में न बांध लेना। देखना, ध्यान देना, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।
अंत में उन्होने भजन गया (भजन शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रही हूँ क्योंकि कोई भी अच्छा गान भजन ही कहलाता है न)। “सबका मंगल हो”, इस भजन इस भजन गाने के साथ मुझे ध्यान आया कि मैं भी उसे मन ही मन दुहरा रही हूँ। थोड़ा अजीब लगा, पर फिर सोचा कि अरे गान ही है न और वह भी सब के मंगल कामना का गान, इसे दुहराने में क्या बुराई है। मेरा मन शुद्ध ही होगा चाहे दूसरों की शुद्धि हो या न हो।
उन्हे और उनकी जीवन संगिनी जो हर कदम पर उनके साथ बराबरी से रही हैं को, कार्यकर्ता आया और ले जाने लगा। वो भजन ग ही रहे थे और मैं उसे दुहरा ही रही थी कि देखा “अरे, वो जा रहे हैं” और अनायास ही मेरी आँखें भर आई। बगल में देखा तो मेरी मित्रा कि भी आंखे ड़बड़बा आई थी। मेरी माँ थोड़ी दूर बैठी पर बैठी आँखों के आँसू पोंछ रही थीं। पूरा पगौड़ा जैसे शांत और स्तब्ध होकर उन्हें जाते हुये देख रहा था। मेरी नज़र मेरी मित्र से मिली और हमने डबडबाई आँखों से क्षण भर के लिए एक दूसरे की तरफ मुस्कुराते हुये देखा और फिर से उन्हे जाते हुये देखने लगे।
मैं सोचती रही, कौन है आज के समय में, कितने लोग हैं जो सच में मन से, अपने रोम रोम से यह चाहते हैं की सबका मंगल हो, सबका कल्याण हो और सबकी स्वस्ति मुक्ति हो !!!
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