Sunday, 5 June 2011

इस मौसम की पहली बारिश :-

इस मौसम की पहली बारिश

आज दोपहर अचानक (2 बजे) मैंने देखा , न जाने कहाँ से काले घनघोर बादल आसमान में धीरे धीरे मेरी ही तरफ आ रहे थे। हवा ज़ोरों से बहने लगी और पांचवें मंज़िल से मैं साफ साफ देख सकती थी की ज़मीन पर रहने वाली धूल , जो सबों के पैरों तले रोंदी जाती है, जैसे मुझसे मुस्कुराते हुए कह रही हो, " देखो ! मेरे ऊंचाई की और घनत्व की तो कोई सीमा ही नहीं । मेरा दोस्त तूफान तुम सबों के घरों मे मुझे ले जाएगा , इसलिए बेहतर है , की तुम अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर लो "।
5
मिनट भी नहीं बीता होगा की दोपहर के 2 बजे  मुझे बिजली जलाने की ज़रूरत महसूस हुई , और मैंने कमरे के बल्ब का बटन दबा दिया। दूसरे कमरे से पापा की आवाज़ आई "टीना , कल्पना देखो लगता है बारिश का मौसम शुरू हो गया "। मैंने सोचा "2 जून ! " थोड़ा अजीब लगा । बचपन में जब हम बारिश का इंतज़ार करते तो बारिश जुलाई के महीने में आती।
धीरे धीरे बारिश की बूंदें टपकना शुरू हुई। अब तक वो छोटी छोटी प्यारी लग रही थी। मैं खिड़की से अपना हाथ बाहर निकाले उन्हे  महसूस कर रही थी। उनकी ठंडक मुझे बहुत अच्छी लगती और साथ  ही जब धरती की सौंधी सौंधी महक आई, तो फिर क्या कहना। थोड़ी देर, मैं इन्हीं छोटी बूंदों का मज़ा ले रही थी कि अचानक पता नहीं कहा से एक बड़ी और मोटी बूंद ने ज़ोर से मेरी हथेली कि कानी  उंगली पर अपना वार किया, जैसे कह रही हो "अपना हाथ अंदर ले अब मैं आ  रही हूँ  "। मैंने उसकी बात मानते हुये अपना हाथ अंदर खींच लिया पर खिड़की बंद करने को मन  नहीं माना। यह दृष्य मैं ठीक दो साल बाद देख रही थी। उन बड़ी बूंदों ने धीरे धीरे घनघोर बारिश का रूप ले लिया। दूर कि पहाड़ी जो मैं अपने पंचवे मंज़िल के कमरे से देखती थी वो अब मुझे धुंदली दिखाई दे रही थी। बारिश कि लहरें आकाश में कभी दायें से बाएँ और कभी बाएँ से दायें जैसे नाच सी रही थीं। जैसे कह रही हो " मुझे तो बड़ा मज़ा आ रहा है। तुम भी आओ "।
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपना चेहरा खिड़की के पास लाया और हल्की बारिश कि बूंदों ने मेरे चेहरे को छूआ जैसे मेरे साथ बतियाना (बात करना) चाह रही हो, कह रही हो "पिछली बार जब तुम यहाँ थी, मेरा मज़ा नहीं ले पाई थी , बीमार थी , और सारा समय अस्पताल के कमरे मे ही बिताया था तुमने । पर इस बार देखो मैं पहले आई हूँ , ताकि जाने से पहले तुम मुझे देख लो"।

मैं बारिश कि बूंदों का मज़ा ले ही रही थी कि पापा ने चाय पीने की इच्छा ज़हीर कि । देखा तो चीनी और चाय दोनों नदारद थे। नीचे जाना था , किराने कि दुकान से चीनी व चाय लानी थी। मैंने पैसे, और ,सौभाग्य से अपना मोबाइल भी ले लिया और लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट आई और मैं उसमें नीचे जाने के लिए g का बटन भी दबाया, और कुछ सोचते हुये नीचे जाने लगी , कि तभी अचानक "अरे ये क्या!  बिजली गुल " । मैं शायद दूसरे और तीसरे मंज़िल के ठीक बीचों बीच अटकी हुई थी। देखा अब क्या करूँ बारिश आने के कारण बिजली कट  गई थी और मैं मेरे सिर से पैर तक बड़ी अजीब जगह खड़ी थी। लिफ्ट  को देखा तो उस अंधेरे में मुझे ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं दिया, सिवाय एक कोने में पान की पीकों का  गुच्छा मुझे चेतावनी देते हुये दिखा " देखो इस तरफ मत टेकना, यहाँ मैं हूँ"। वैसे ये लिफ्ट तो कहीं से भी  टिकने के काबिल नहीं थी। बस, इस लिफ्ट का बीच का केंद्र बिन्दु ढूंढो और वहीं सावधान कि मुद्रा लिए खड़े रहो।

अचानक याद आया " अरे! मेरे पास तो मोबाइल फोन है"। फिर क्या था झट से पापा को फोन किया और बताया कि मैं बीच में अटक गई हूँ। पापा ने बस इतना भर पूछा "डर तो नहीं लग रहा न " मैंने नहीं कहा  और कहा "थोड़ी देर में बिजली तो आ ही जाएगी", और मोबाइल रख दिया। फिर सोचा दूसरे दोस्तों को फोन करूँ। और इत्तेफाक ऐसा कि दीदी से ले कर शिल्पी और 2-3 दोस्तों में से किसी का फोन नहीं लगा देखा ," लै!  मोबाइल में तो टावर ही नहीं है "। सोच रही थी कि टावर  कैसे आए कि बाहर कि बिजली कि आवाज़ ने मेरा ध्यान बाहर हो रही बारिश पर  आकर्षित किया, मेरे सोचने कि क्षृंखला झट से मेरे बचपन में चली गई। याद आया कि आशियाने में (मेरे गाँव का घर) जब भी बारिश का मौसम आता तो हम सब बारिश में दरवाजे पर बैठे (दरवाज़ा, गाँव में बैठक की जगह को कहते है, जो अक्सर घर के बाहर होता है) हम चाय पीते। मम्मी तरह तरह के गरमागरम व्यंजन बना लाती और हम बड़े मज़े से बारिश का और प्रकृति मज़ा लेते हुये खाते रहते। सामने का दृश्य तो बड़ी कठिनाई से दिखाई देता। सामने कि पूरी जगह देखते ही देखते  कुछ ही देर में पानी से भर जाता, और मैं और दीदी उस बारिश में खूब खेलते। अक्सर कोई नारियल का पेड़ , जो हमारे दरवाजे पर  चारों तरफ लगे हैं कोई न कोई नारियल का पत्ता गिरा देता। पापा उसे ले आते और मुझे  और दीदी को उसपर बैठने को कहते। नारियल का पत्ता चौड़ाई में और लंबाई में काफ़ी बड़ा होता है, और कम से कम दो छोटे बच्चे, छह और तेरह साल के, आराम से उसपर बैठ सकते हैं। हम उसपर बड़े मज़े से बैठते और पापा उसे नाव कि तरह पानी में खींचते। पूरी जगह में चार चार इंच पानी भरे होने के कारण हमारी नाव आराम से आगे बढ़ती और उसके साथ हम नाविक भी। हमें बड़ा मज़ा आता, लगता नाव कि सैर कर रहे हैं, सिर्फ खेवैया पापा हैं।

बारिश खत्म होने पर हम कागज़ कि नाव बनाते और उसे पानी में छोड़ते उसपर कभी कोई चींटी या कभी कोई कीड़ा रख देते, और नाव का नाम भी रखते। जैसे वो नाव बड़ी लंबी  समुद्री यात्रा पर जा रही हो, और कोई खज़ाना वजना है जिसकी खोज करनी है। 
    एक बार तो एक नाव का नाम दीदी ने यूनिकॉर्न ही रख दिया था। यूनिकॉर्न टिनटिन कॉमिक्स के एक अंक में आता है। जिसमे टिनटिन , कैप्टन और उनके कुछ साथी खजाने कि खोज में समुद्री यात्रा पर जाते हैं। एक बार तो मैंने एक छोटा सा मेंढक , जो करीब मेरी उंगली के चौथाई भाग जितना बड़ा ही होगा, उसे पकड़ा और सबकी नज़रों से छुपा कर उसे नाव  पर रख दिया। बेचारा, सोचता होगा, "पता नहीं ये कहा से आ गई है और मुझे इस अजीब सी  चीज़ पर रख दिया है"। मुझे याद है, वो मेंढक थोड़ा चिपचिपा सा था पर ये देखने की उत्सुकता में की वो उस नाव पर कैसा लगेगा , मैंने उस मेंढक को पकड़ ही लिया था। ऐसी धुंदली सी याद है मुझे। इन सब चीजों में मुझे बड़ा मज़ा आता। मेंढक पकड़ना, पिल्लू छूना इत्यादि। और दीदी को उतना ही गंदा लगता। इसलिए मैंने ये काम दीदी से छुपा के किया था। डर था , दीदी ने देख लिया तो डांट तो पड़ेगी ही शायद चपत भी लगे। ये सोचने की श्रुंखला थोड़ी और आगे बढ़ी और मुझे याद आया की काफ़ी सालों बाद एक बार ऐसा आया की संयोग से मैं और दीदी फिर से बारिश के मौसम में रोसड़ा में ही थे और खूब ज़ोरों की बारिश हो रही थी। फिर उसी नारियल के एक पेड़ ने अपना एक बड़ा पत्ता गिराया जैसे कह रहा हो " लो, बहुत दिनों बाद मेरी सवारी का फिर से मज़ा लो"। पर हम अब उतने छोटे नहीं थे की दोनों  उस पत्ते पर बैठ सकें। दीदी ने मुझे as usual  बच्चा मानते हुये कहा की तुम बैठो और  मैं खींचती हूँ। और मैं , सच मे बैठ भी गई। दीदी ने जैसे तैसे थोड़ी दूर खींचा और फिर मेरी बारी आई। दीदी बैठी और मैंने भी बड़ी मेहनत से नाव थोड़ी आगे बढ़ाई। मैंने दीदी  की तरफ देखा तो उसके चेहरे पर जैसे लिखा था "मेरी छोटी और प्यारी बहना, अब शायद हम इतने बच्चे नहीं रहे  कि इसपर बैठ सके और दूसरा कोई इस नाव को खे सके"। हम फिर भी उस बारिश मे हम खूब खेले थे नाव बनाई, और ज़ोरों की बारिश होने के बावजूद एक दूसरे पर पानी भी उड़ाया। आँगन में चौकी  पर खड़े हो कर और गीले हो जाने कि कोशिश की । मम्मी को बुलाया ,पर वो कहाँ आने वाली थीं। बाहर देखा तो कुछ गाँव की लड़कियां खड़ी हमें दूर के ट्रेनिंग हॉल से देख रही थी और हंस रही थीं। जैसे वो भी हममे शामिल होना चाहती हों। उस दिन आशियाने में लड़कियों का कोई शिविर था । हम उन्हे भी खींच कर बाहर लाये। मुझे याद है हम बारिश के रुकने पर ही वापस आए थे।

इन यादों के बीच अचानक मेरा ध्यान टूटा और मैंने देखा की बिजली आ गई है और मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ जा रही हूँ। मेरा खयाल वहीं रुक गया। पता नहीं मैं कितनी देर वैसे ही सावधान की मुद्रा में खड़ी  अपने पिछले दिनों को टटोल रही थी। इस मौसम की पहली बारिश ने मुझे पता नहीं कहाँ कहाँ की सैर कराई। मैं सोचते हुये की पता नहीं आशियाने की वो बारिश अब कब नसीब होगी लिफ्ट का दरवाज़ा खोला और किराने की दुकान की तरफ अपना कदम बड़ाया।

आज तीन जून को जब मैं लिखने बैठी हूँ। आज फिर तूफान ज़ोरों की बारिश लिए आया है। अब जब मेरे लिखने का अंत है, हल्की बारिश अब भी हो रही है , शाम का समय है और सूरज बस डूबने ही वाला है। दूर कहीं कुछ मेंढक मस्ती में टर्रा रहे हैं , और खूब खुश हो रहे है। कुछ पक्षियों के चहचहाने की  भी आवाज़ आ रही है, शायद  मेरी खिड़की  के पास ही बैठी है। वो भी खुशी से इस मौसम की  पहली बारिश का स्वागत कर रहे हैं।




                                                              मेरा आशियाना

2 comments: