कुछ दिनों से एक बात मेरे मन में बीच बीच में घूम जाती थी। महात्मा गांधी की किताब हिन्द स्वराज, मैं तीसरी बार पढ़ रही थी। मैं जब भी इस किताब को पढ़ती हूँ, मुझे हर बार कुछ नए प्रश्नों और उनके उत्तरों के गुच्छे मन में हलचल पैदा करते हैं। हिन्द स्वराज पुस्तक पेज नंबर 30, (हिंदुस्तान की दशा – 2 और 3) के प्रशनावलियों ने खास करके 2 के अंतिम प्रश्न ने इस बार मेरे मन को आकर्षित किया। जिन्होने यह किताब पढ़ी है वो जानते हैं की इस किताब का मूल लेखाचित्र, सवाल और जवाब (प्रश्नोत्तर) के तर्ज़ पर लिखा हुआ है।
हिन्द स्वराज सिर्फ 80 पन्नो की पुस्तक हमें बहुत कुछ सिखाती है
विचार घूमे और सोचने लगी की हिंसा है क्या ? उसकी सीमा क्या है ? क्या यह किसी खास जाति या संप्रदाय को मानने वालों में है ?
यह सवाल मैंने अपने एक दोस्त से किया। उसका उत्तर उतना ही सरल और आसान था जितना की प्रश्न। उसने कहा “जहां तक हिंसक होने की बात है, सबसे ज़्यादा हिंसक तो आदिवासी होते हैं। फिर उन्हे तो हिंसक होने की संज्ञा नहीं मिलती” मुझे यह उत्तर जंचा, पर फिर भी कुछ शंकाएँ मन में थीं। मन दूषित हो रहा था, और उसकी बातों को गलत साबित करने के लिए नए नए बहाने ढूंढ रहा था। इसलिए यही सवाल मैंने अपने पिता से किया। इसपर उन्होने मुझे बहुत ही सरल शब्दों में कुछ मुद्दे बताए जिससे मेरे नाम का भ्रम खत्म हुआ।
ख़ान अब्दुल गफार ख़ान
मुद्दे इस प्रकार थे। उनका कहना था कि इंसान अगर धर्म या परंपरा में पड़ कर हिंसा करता है , जैसे कि बली चढ़ना और हलाल करना, इत्यादि तो वह हिंसक प्रवृत्ति का है ये आप नहीं कह सकते। अगर एक तबका अपनी दिनचर्या में भोजन जुटाने के लिए हिंसा करता है (किसी जानवर को मारता है) तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व हिंसक है यह नहीं कहा जा सकता। देखने में आया है कि कितने ही शाकाहारी जो प्याज़ और लहसुन कि गंध पर भी नाक दबा लेते हैं, स्वभाव में ज़्यादा हिंसक होते हैं। और कितने ही लोग जो शायद सप्ताह में 5 दिन मांसाहार करते होंगे, उनमें हिंसक स्वरूप कम देखने को मिलता है। कुछ लोग कहेंगे यह सच नहीं जो शाकाहारी नहीं उन्हे हिंसा करने में उतनी कठिनाई नहीं होती । हाँ, शाकाहार आपकी मदत करता है। मेरा अनुभव यह कहता है की शाकाहार सिर्फ मनन करने में मदत करता है। उदाहरण भी सामने ही है और हमें उसके लिए इतिहास में ज़्यादा पीछे जाने की भी ज़रूरत नहीं। ख़ान अब्दुल गफ़ार ख़ान इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उनकी कौम पख्तून, खूंखारों में भी खूंखार और बहादुर मानी जाती है। पर जब देश की आज़ादी की बात आई और उनके सत्याग्रह की बात आई तो उनका नाम बहादूरों और अहंसिक सत्याग्रहियों की सुची में सबसे आगे की पंगति में हमेशा रहेगा। कहा जाता है की सत्याग्रह करते हुये, वह सब निडरता से, बिलकुल अड़िग होकर अंग्रेजों का मुक़ाबला करते थे। अंग्रेजों और उनके चेलों की नाक में दम कर देते। वो भी सोचते होंगे “इनके ऊपर कितने भी सितम करो ये इतने निर्भय हो कर बिना हथियार उठाए कैसे लड़ रहे हैं”।
यह तो एक बात हुई। हिंसा के कई प्रकार हैं। हिंसा शारीरिक भी होती है और मानसिक भी। और सच कहें तो मानसिक, ज़्यादा हानिकारक होता है। इस तरह की हिंसा इंसान आम ज़िंदगी में, प्रतिदिन की दिनचर्या में कई बार करता है। उसकी सीमा बंधनी बहुत ज़रूरी है और वो ज़्यादा चिंताजनक है।
फिर एक संस्कृतिक हिंसा भी है। उदाहरण के तौर पर यूरोप की संस्कृति का मूल ही इस पर आधारित है। अगर इतिहास पर दृष्टि डालें तो रोम का इतिहास साफ़ साफ़ दिखाता है और इस बात की पुष्टि भी करता है। हाँ, और अगर कोई ये कहे की ये तो इतिवृत हुआ, वर्तमान परिस्थिति ऐसी नहीं है। यूरोप प्रगति का एक शानदार नमूना है, और किसी का भी मार्गदर्शक बन सकता है। तो जनाब, यह सरासर उसकी भूल है। वो भूल रहा है की अब वहाँ की संस्कृति सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा की रह गई है। अगर आप गौर करें तो इस तरह के स्वभाव के जड़ में हिंसा ही है। और अगर यह स्वभाव और कुंठित हो जाए तो साफ़ साफ़ उखाड़वाद की नीति जन्म लेती है। क्योंकि तब इंसान आगे बढ्ने के लिए किसी भी हद तक जाता है। आगे बढ्ने के लिए अगर उसे दूसरे के सर पर लात जड़ कर भी आगे निकलना पड़े तो भी उसे कोई गिला नहीं, चाहे दूसरा इसमें कुचला ही क्यों न जाए। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की गांधी जी ने ये भी कहा है की दुनिया भर की सारी संस्कृतियाँ, भारतीय संस्कृति भी हिंसा पर ही आधारित है। हाँ भारतीय संकृति कुछ कम है। अब यहाँ कृपया कुचलना शब्द को शब्दशः नहीं लिया जाए। कुचलना शब्द का मतलब यहाँ दूसरे को नुकसान पहुंचाना और आगे बढ़ना। इस उखाड़वाद को कुछ लोग छोटे या मोटे रूप में हर रोज़ देखते होंगे। शायद इसके शिकार होते होंगे या इसका इस्तेमाल करते होंगे। हाँ, मुझे पता है। मन ही मन इस बात को नकार भी रहे होंगे की “ ये क्या कह रही है, प्रतियोगिता तो अच्छी चीज़ होती है, इस तरह आदमी आगे बढ़ने की कोशिश करता है। एक स्वस्थ स्पर्धा किसी का नुकसान नहीं पहुँचती वगैरह वगैरह। पर लोग यहाँ भूल जाते है की भाई ! हम हैं इंसान और वो भी कलयुग के। यहाँ मैं शर्तिया कह सकती हूँ की यह स्वस्थ स्पर्धा अगर है भी तो बहुत ही कम प्रतिशत में है। स्कूल, कॉलेज और कार्यालयों में आप इसे हर रोज़ देखते होंगे । यहाँ एक और शब्द पर गौर किया जा सकता है “सहकार”। शायद हमारे पूर्वज सहकार शब्द का मतलब नहीं जानते थे या सहकार भी हो सकता है इसे झुठलाते थे इसलिए उन्होने स्वस्थ स्पर्धा शब्द का ईज़ाद किया होगा। देखेंगे तो पाएंगे की स्वस्थ स्पर्धा जहां आई वहाँ सहकार नहीं रह जाता और कुछ दिनों बाद वो अस्वस्थ स्पर्धा का रूप ले लेती है। इसे झुठलाना बहुत आसान है पर यह तो रहने ही वाला है।
चलिए मेरा व्यक्तिगत उदाहरण ही बताती हूँ। मेरे कॉलेज में यह बात आम थी की फायदा उठाओ और जब सामने वाले को काम आए तो उसे मदत न करो। ज़्यादा यही कोशिश करो की उसे दूसरी जगह से भी सहयता न मिले। इसे समझने में मुझे काफ़ी देर लगी। इस तरीके से मुझे एक प्रकार से लड़ना ही पड़ा, क्योंकि मैं इसे अपनाना नहीं चाहती थी। इसका विकल्प ढूढ़ती रही। और ये नीति कैसे खत्म हो, कम से कम मेरे क्लास में ही इसका प्रयत्न ही किया। पर अंत में निकला यह की ऐसे लोगों से दूर रहने में ही भलाई है। इतना संपर्क में ही रहना ठीक है जिसमें मुझे कोई नुकसान न हो। मेरी योजना तो ठंडे बस्ते में धरी की धरी ही रह गई। एक पारंपरिक स्कूली शिक्षा नहीं मिलने के कारण मेरे मन में प्रतिस्पर्धा की भावना तिल भर भी नहीं थी। हाँ, मैं ये भी नहीं कहती की जो स्कूल जाते हैं वो शैतान का रूप होते हैं। पर उनमें कम प्रतिशत ही देखेंगे आप। और दूसरे को नीचा दिखने की भावना न भी हो तो ईर्षा तो पनपती ही है, और खुद को ही जलती है। बेचारे बच्चे यह समझ भी नहीं पाते होंगे की उनमें इस कुंठित भावना ने जन्म कब और कहाँ ले लिया।
मुझे यह भी पता है की कुछ लोग ये सोच रहे होंगे की ये लड़की क्या अंट शंट लिख रही है। उनमें तो यह सारी बातें नहीं हैं। खैर, ये तो वो खुद ही हैं, जिन्हें यह जानना है।
जयप्रकाश तो अगर यह गलत है। तो इसे बदलने का कोई उपाय है क्या ? क्या हो सकता है यह उपाय ? क्या संभव है की संघर्षवाहिनी के युवाओं का वो प्रचलित शब्द “उखाड़वाद” किसी तरह से बदला जा सके ? आज हम यह नीति अपने ही भाई बंधुओ के साथ अपना रहे हैं। हम भूल रहे हैं की यह नीति जयप्रकाश की नहीं थी। क्या हमेशा इस कहावत को याद दिलाना ज़रूरी है की “ An eye for an eye makes the whole world blind” .
सच कहा! खान-पान, रहन-सहन,पहनावे से किसी के स्वभाव का आंकलन करना बहुत ही संकुचित नजरिया है जिसे समाजशास्त्री एथ्नोसेंट्रिस्म कहते हैं.जाति धर्म के आधार पर बंटे हुए समाज में दूसरों 'एथनिक ग्रुप' के कार्यों को कमतर या बर्बर बताना मानव की एक सहज अमानवीय प्रवृत्ति है.
ReplyDeleteतुमने सरहदी गाँधी का उदाहरण देकर हिंसा-अहिंसा का बहुत ही सुलझा हुआ और सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया है.'नेल्सन मंडेला' और 'मार्टिन लूथर किंग' भी अहिंसा की वो मिसालें हैं जो सदियों से बर्बर समझी जाने वाली(और इसी प्रकार दुष्प्रचारित की जाने वाली) नस्लों से आती हैं.
बहुत ही उम्दा लेख है और उन कुछ लेखों में से एक है जो अहिंसा जैसे कठिन कॉन्सेप्ट को समझने का एक अलग परन्तु पॉजीटिव नजरिया देते हैं.
lagta hai aapko kuch sawal bahut dino se pareshan kar rahe hain aur aap unke uttar nahin khoj pa rahin hain. man me dwand chal raha hai. ye aapke lekh me bhi reflect hua hai.ant me bhi aap sawal hi punch rahi hai.
ReplyDeletejab tak hum duniya ki kriya par pratikriya karte hain, tab tak hum doosron ke hisaab se jeete hain. Aur isiliye itne sawal bane hue hain. lekin jab REACTIVE ki bajay ACTIVE ho jate hain, to hum apni zindagi jeete hain. Tede aadmi ko duniya tedi dikhayee deti hai, seedhe ko bilkul seedhi. Be ACTIVE and not REACTIVE. anpi zindagi jiyogi to SAWAL Pareshan nahin karenge.
हाँ पंकज जी मैंने बहुत से सवाल लिखे । पर fortunately मुझे ऐसे मौके मिलते रहे है की मैं Active रहूँ, socially भी। वो सवाल मैंने ऐसे लोगो के लिए किया था जिनहे थोड़ा सोचने की ज़रूरत है। जो कुछ करना तो दूर इन सभी बोटों के बारे मे सोचते तक नहीं।
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