Thursday, 2 June 2011

माई


माई (हिन्दी में माँ) अगर कोई कहे या लिखे तो सबसे पहले माँ का चित्र सामने आता है। पर यहा मेरे case में ये मैं अपनी नानी के बारे मे लिख रही हूँ। मैं उन्हें माई बचपन से ही कहती आई हूँ क्योंकि घर में सब उन्हें माई ही बुलाते थे, सिवाय बाबा के के (मेरे नाना) को छोड़ कर, वे माई को वत्सला बुलाया करते। मम्मी फिर दीदी और उनका देखकर फिर मैं भी उन्हें माई बुलाती और सच कहूँ तो उनके ऊपर ये संबोधन perfect बैठता था।

मेरे बचपन का उनके बारे मे मुझे ज़्यादा याद नहीं, पर हम जब भी वर्धा जाते, माई और बाबा हमारा बहुत ही गद्गद भाव से स्वागत करते। हमारे लिए जो वह खिलौने रहते (ज़्यादातर मिट्टी के बने हुये छोटे छोटे प्यारे से)जिनके साथ मैं और दीदी खेलते।उन खिलौनो की याद मुझे आज भी है, हमें लगता की हमें कोई खज़ाना मिल गया हो। मिट्टी के बने छोटे छोटे घर, पेड़,जानवर इत्यादि हमें बहुत भाते,उन गर्मी के डीनो,ठंडे ठंडे खिलौनों को हम हाथ में पकड़ कर ही संतुष्ट हो जाते ।  पर सबसे ज़्यादा जिसका हमें इंतज़ार रहता वो था मई के हाथ का बनाया वरण भात और पूरण की पोली। हम इंतज़ार करते की कब वो हमे बुलाएंगी और कब हम खाने के मेज़ पर बैठेंगे। उसके हाथ का बनाया खाना शायद ही मैंने और कहीं खाया हो। वो खाना तो अच्छा बनती ही थीं, खिलाती भी बड़े प्यार से थीं, की जहां हमें थोड़ा सा वरण भात खाना होता, हम unlimited खाते जाते जब तक की हमे कोई रोकता नहीं। अंतिम बार जब मैं वहाँ आई iथी तब मैं engineering की पढ़ाई खत्म कर रही थी। उनका Cataract का operation होना था। operation और उनके पहले के check-ups में मैं ही उनके साथ जाती। घुटने के दर्द के कारण वो थोड़ा धीरे चलती तो मैं उनका हाथ पकड़ के उन्हे clinic तक ले जाती। उनका हाथ मक्खन से भी मुलायम होता, और मुझे डर लगा रहता की कहीं मैं उनके हाथों को ज़ोर से दबा तो नहीं रही, क्योंकि उनकी हथेली गाढ़ी गुलाबी हो जाया करती। ऑपरेशन के समय मैं और मम्मी दोनों उनके साथ रहे।
वे हमारे यहा करीब 15 दिन रही। उन 15 दिनों में उन्होने मुझे अपनी ज़िंदगी के बारे में बहुत कुछ बताया। अपने बचपन से ले कर शादी तक का सफर उन्होने मुझे बड़े चाव से बताया। उन्हे table tennis खेलना बहुत अच्छा लगता और वो अपने समय की college champion भी रह चुकी थीं। आज के जमाने में भी कोई अपनी माँ के बारे में ऐसा सोच नहीं पता और जब मैं बताती हूँ की मैं अपनी नानी के बारे मे बता रही हूँ तो उन्हे विश्वास नहीं होता। RSS की महिला शाखा की प्रमुख होने के कारण वो बहुत क्रियाशील रहती, और हमेशा लड़कियों के विकास के लिए नए नए तरीके सोचती रहती। जितनी वो ज्ञानी थी उतनी ही हिम्मती भी, और इसे वो अपने बच्चों, खासकर अपनी
बेटियों (बाला और शुभा) पर लागू भी करती। उनका पहनावा पारंपरिक महराष्ट्रियन साड़ी जिसे लुगड़ कहा जाता है। अपनी जवानी में वो इसी साड़ी में आराम महसूस करती थी या कह लीजिये की जबतक उनका sports नहीं छूटा था तबतक। infact शादी के बाद भी वो कभी कभी tennis खेला करती (9 गजी साड़ी में उन्हे सुविधा होती)। जब मैं उनसे पूछती की आप इस प्रकार की साड़ी क्यों पहनती थीं , ये तो धोती टाइप की है और थोड़ी अजीब सी भी दिखती है, क्योंकि इस तरह की आम तौर पर देखने को नहीं मिलती, तो उनका जवाब होता। हम कपड़ा दिखावे के लिए नहीं सहूलियत के हिसाब से पहनते हैं। लुगड़ में आप ज़्यादा फ्री होते हैं , आप चाहे तो gents cycle भी बड़ी आसानी से चला सकते हैं। उदाहरण के लिए झाँसी की रानी (रानी लक्ष्मी बाई) वो एक बहादुर और कर्मठ महिला थीं। घुड़सवारी करने जैसे काम वो आसानी से कर पातीं क्योंकि वो लुगड़ पहनती थीं। वो भी एक महराष्ट्रियन ही तो थीं। उनकी बात सुनकर मुझे उनकी बात बोहोत जंची।

जब बाबा ने बिस्तर पकड़ लिया था उस दौरान मैं Nagpur से अपनी एक बचपन की सहेली (स्नेहल) के साथ उनसे मिलने गई थी। उस वक्त मुझे याद है माई ने बहुत relieve महसूस किया था। खाने को पकौड़े बनाए थे और as usual वो मुझे और स्नेहल को बहुत पसंद आए। थोड़ा बाबा को भी चखाया। उस वक्त बाबा कुछ बोलने की भी हालत में भी नहीं थे पर माई के पूछने पर “छान झाली का ?”(अच्छी बनी है क्या ?) उनके मुह से अनायास ही “EXCELLENT ”  निकाल गया। और स्नेहल रास्ते भर उनकी तारीफ करती आई थी । घर पहुँच कर उसने अपनी माँ को भी उनके बारे में बड़ी उत्सुकता के साथ बताया था। अंतिम बार जब उनसे मिलना हुआ , मुझे वो दृश्य अभी भी अच्छी तरह से याद है। ऐसा जैसे एक चित्र सी खींच गई हो मन में। मैं और मम्मी उनसे मिलने वर्धा गए थे। गर्मी का मौसम था और धूप कड़क। निकलते समय उन्होने एक चटनी बना के दी जो उन्होने अपने हाथ से बनाई थी जो मेरी मनपसंद थी। वो दरवाज़े तक हमें छोड़ने आई थीं। उनके घुटने खराब होने के कारण वो अंत तक हमारे साथ नहीं आई। और मम्मी ने उन्हे गेट तक आने से माना किया। बस वही अंतिम क्षण मैंने उन्हे पीछे मुड़ के देखा और मुस्कुराई, बदले मे उन्होने मुझे हाथ हिला कर विदा किया। उन्हें देख के ऐसा लगा जैसे वो नहीं चाहती थी की हम जाए, या फिर वो ये चाहती थी की वो हमारे साथ आ जाएँ।
उसके 1 महीने बाद 26th June को मम्मी का फोन आया की वो अब नहीं रहीं।

वो तस्वीर मेरे मन मे अब भी है, और मैं हमेशा सोचती हूँ की “काश मैंने उन्हें अपने साथ चलने को कहा होता, काश पीछे मुड़ कर मैंने उनका सामान साथ रख लिया होता ”। इसका अफसोस (या अफसोस से कुछ ज़्यादा ही) मुझे हमेशा रहेगा। 

                                                                   मेरी प्यारी माई





4 comments:

  1. ब्लौग शुरू करने के लिए बधाई.
    जैसा मैंने पहले ही कहा, तुम्हारा ये संस्मरण मुझे मालगुडी डेज़ की याद दिलाता है.शब्दों का सादगी भरा प्रयोग और कहानी कहने की तुम्हारी क्षमता के कारण तुम्हारे वाक्य सरलता से दृश्यों में परिवर्तित हो जाते हैं.
    ऐसे ही लिखते रहो.:-)

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  2. liked ur candid writing style..:)
    keep posting !

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  3. very nice and clear writing.
    I'm your fan...

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