Saturday 29 March 2014

पुरानी कहानी मेरे शब्दों में



तो इस बार की कहानी की शुरुआत होती है Wales से जहाँ मैं अपने माता पिता के साथ National Express के बस में बैठी London  जा रही हूँ। कहानी के शुरुआत मे मैं आपको बता दूँ की इस कहानी का नायक हैं एक 22 साल का नौजवान और नायिका के बस अभी 17 साल पूरे ही हुये हैं।
Wales में मेरे माता पिता के मित्र पीटर और उनकी पत्नी रोज़ी रहते हैं जो वहाँ के एक नामीगिरामी समाज सेवक और जज हैं। उनका घर जैसे fairy land के Hobbit का घर हो, और उनकी पालतू Ruby जो की अब 5 साल की है बड़ी ही चंचल और मस्त दोस्त सी है। उनका घर जैसे इंग्लैंड के पुराने घरों का नमूना कुछ सुविधाजनक आधुनिकताओं के साथ। साथ ही एक चिनमी (जिसकी जगह आज कल गॅस हीटर ने ले ली है) जो अपने पूरे जोश खराश के साथ धधकती हुई लपटें बिखेर रहा है। एक छोटे से पहाड़ की चोटी, कोहरे के कंबल में नीचे से झलकता उनका घर, हरे भरे बरसाती वातावरण के बीचोंबीच बड़ा ही ख़ुशनुमा लगता। वही मैंने पहली बार 2 इंद्रधनुष एक साथ देखे जिनका एक सिरा पृथ्वी की गोद में कहीं समाया हुआ और दूसरा सिरा एक दूसरे को बींधता हुआ कहीं दूर खो सा गया।
अलसाई सी शाम हम उनके living room  में बैठे चाय और नाश्ते का मज़ा ले रहे थे। पीटर अपनी खास कुर्सी पर बैठा अपने अजब गज़ब से किस्से सुना रहा था। अपने भारत यात्रा के रोमांचकारी किस्से, जिन्हे शायद मैं भी करने में झिझकती। मैं अधलेटी अंगीठी के पास उसकी गर्माहट का मज़ा लेते हुये पीटर, पापा और मम्मी की बातें सुन रही थी। बीच बीच में Ruby आ कर अपनी गीली नाक मेरे गाल से सटा मुझे अपने होने का एहसास दिलाती। मेरे माता पिता ठीक सामने सोफ़े पर बैठे चाय का मज़ा ले रहे थे। मेरी नज़र मेरे पिता के ऊपर थी की तभी उनकी आंखो में एक चमक सी आई। गौर से देखा तो वो मेरे ठीक बगल की दीवार पर लगी तसवीर देख रहे थे। यह तसवीर डॉ श्वाट्ज़र की थी, ध्यान देने की बात है इन जनाब का आगे की कहानी मे बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है। क्षण भर देखा होगा उन्होने और फिर मेरी माँ की तरफ देखा। दोनों की आंखे एक दूसरे से मिली। उनकी चमकती हंसी बिखेरती आंखे और मुसकुराते होंठ देख मुझे सबकुछ समझ आगया, एक खास कहानी याद आई जो मैंने कई बार पहले सुनी है। एक घटना जिस कारण मैं और दीदी अस्तित्व में आए। जिस नायक और नाईका का मैंने कहानी के शुरुआत मे मैंने उल्लेख किया है, शुरुआत होती है 1971 से। अब आप ये तो समझ ही आज्ञे होंगे की मेरी कहानी के प्रमुख किरदार और कोई नहीं मेरे जीवन के भी नायक और नयीका हैं।

यह लड़की जो अभी 17 साल की ही है, निश्चय करती है की मैं अपने पड़ोसी देश (बांगलादेश) की मदत करने जाऊँगी जब उसका ही एक बदमाश पड़ोसी देश उसे आज़ादी नहीं दे रहा।” “तरुण शांति सेना एक गांधीयन युवाओं का ग्रुप जिसे उस माने के आत्माविश्वासी और साहसिक (और इस जमाने के महान तो नहीं पर महान से काम भी नहीं ) युवापीड़ी के करीब 23 – 24 नवयुवक/ यूविकाएं कलकत्ता के गांधी शांति प्रतिष्ठान में मिलने वाले थे। ये उनका Base camp था ऐसा कह लीजिये। लड़की की माँ एक साहसिक महिला और समाज सेविका थी। पिता Leprosy के specialist और धार्मिक किस्म के इंसान थे। जब उन्होने ये सुना तो अपनी बेटी से थोड़े से चिंताजनक स्वर मे कहा वहाँ बम भी फट रहे हैं बाला, ऐसे वक्त वहाँ जाना खतरे से खाली नहींऔर उसके जवाब में लड़की ने बस हाँकह कर जवाब दिया। उस लड़की से अगर आज पूछो तो वो बताती हैं की उनके घर से थोड़ी सी मंगलकामना की चिंता और ठेर सारा उत्साह मिला और वह कलकत्ते के लिए रवाना हुई। वहाँ से होते हुये उन्हे जलपाई गुड़ी और फिर 23km और आगे जाने पर बलराम हाट कैंप पहुँचना था जहां refugees को भारत सरकार की तरफ से आश्रय दिया जा रहा था। यह कैंप बांग्लादेश बार्डर से कुछ फ़र्लांग की दूर पर ही होगा ( 3- 4 खेत पार करने पर ही आप इस जगह पहुँच सकते थे)। तो जब ये युवाओं का दस्ता गांधी शांति प्रतिष्ठान कलकत्ता से refugee कैंप पहुंचा तो उन्हे शायद ही पता होगा की वे किन कारनामो के बीच से गुज़रेंगे। ये 2 महीने उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण महीने निकले। यहा उन्होने ऐसे कारनामे किए जो खुद शायद उन्होने सोचे भी न हों। साथ ही आगे की ज़िंदगी में जो उनका व्यक्तित्व उभर कर आया उसमें भी इन 2 महीनो का बड़ा हाथ है। यहाँ उन्होने सुख और दुख दोनों ही को चरम सीमा पर देखा।  न सिर्फ देखा ही बल्कि उसमें शामिल भी हुये। नायिका कहती हैं यहाँ मैंने जन्म और मृत्यु दोनों देखे, एक हाथ से 15 साल की लड़की का प्रसव खुद अपने हाथों से किया तो दूसरी तरफ खुद अपने ही आंखो के सामने एक बेगुनाह की मृतु देखी। एक में जहां कुछ तो किया इसका उत्साह तो दूसरी तरफ कुछ न कर पाने की निराशा
एक दिन अचानक उड़ते उड़ते खबर पहुंची की कुछ दबंग जो उसी कैंप में ठहरे थे, उस लाचारी और बेबसी के माहौल में भी गोदाम लूटने का प्लान बना रहे थे। जो सामान refugees की मदत के लिए तरुण शांति सेना ने इकठठा किए थे उनको अगली सुबह लूटने का प्लान था। उस रात 23 जवानों के इस गुट ने रातभर जग कर सामानों की रक्षा करने का दृढ़ निश्चय किया। सब अपने अपने कमरों में शांत पर सजग हो पहरा दे रहे थे। ठीक उस समय जब निश्चिंतता और नींद की एक लहर आई ही होगी (नींद की लहर आने का एक खास वक्त होता है, करीब 1.30 से 2 बजे के बीच)  की एकाएक उस घने कोहरे भरे सन्नाटे में हल्की आवाज़ आई। ये लड़की जो अपने बगल में रातभर लालटेन और एक मोटा सा डांडा लिए थी इस हल्की सी आवाज़ पर चपलता के साथ उठी और बिना किसी डर अपने बोर हो रहे डंडे को उठाया और बाहर निकाल गई। अंधेरी रात ऐसी की हाथ को हाथ न सूझे, उस अंधेरे में ही किसी तरह लालटेन की रोशनी में थोड़ा आगे गई तो देखा उसका साथ देने पीछे से उसके सारे साथी भी उसी निडरता से अपने अपने हाथों मे रोशनी और डंडे लिए बाहर निकाल आय थे। ये दस्ता एक साथ आगे बढ़ता गया। पर पास पहुँचने पर किसी को निराशा और किसी को संतोष ही हाथ लगा। और पता चला की कुछ लोग वहाँ आए तो थे पर चौकशी की खबर सुन वही से बिना कुछ लिए रवाना हो गए।
यह दस्ता मुक्ति फ़ौजियों का मनोबल बढ़ाने की भी भरपूर कोशिश करता। अपना पूरा सपोर्ट जताता किसी देश की आज़ादी वहाँ की जनता के लिए कितनी प्यारी होती है ये भारतीयों से ज़्यादा कौन जानता था। खासकर 70 के दशक में तो एक लहर सी छाई थी। तरुणो का यह दस्ता मुक्ति फ़ौजियों की मार्चिंग करवाता, व्यायाम करवाता, और शाम के समय संस्कृतिक कार्यक्रम भी करवाता। इन शाम के संस्कृतिक कार्यक्रमों में जब भी ये लड़की अपनी जोशीली और सुरीली आवाज़ में आमार शोनार बांग्लाकी धुन छेड़ती कइयों की आँखें नम हो जाती। अपनी धरती माँ को छोडने का गम उन्हे खलता और आज़ादी की लालसा और प्रबल होती।
तो जब भारतीय सरकार ने यह घोषणा की कि सारे voluntary संस्थाओं से जो लोग मदत करने आए हैं अब उन्हे वापस जाना होगा। युद्ध अब कभी भी शुरू होगा और वहाँ रहना सुरक्षित होगा और कुछ हो गया तो वो सरकार कि ज़िम्मेदारी नहीं मानी जाएगी।
तो तय हुआ कि दर्जेलिंग होते हुये फिर हमारे बहुत ही अच्छे मित्र हैं जिनके यहा एक दिन का ठोर देते हुये हम आगे बढ़ेंगे। रोसरा उत्तर बिहार का एक छोटा सा अनुमंडल है जो तीन तरफ से नदियों से घिरा है। तीनों तरफ से घिरे होने के कारण यहा हरियाली की कमी नहीं है। खेती यहा का मुख्य पेशा है। क्योंकि दारजेलिंग रास्ते में पड़ता है इसलिए वहाँ जाना आसान है। दर्जेलिंग पहुंचे तो वहाँ भी युद्ध का असर साफ दिखाई दिया। पता चला की युद्ध के कारण हर जगह black out है खिड़कियों और दरवाजों पर काले कागज़ चिपकाए हुये हैं ताकि दुश्मन की फौज को पता ना चले की नीचे बस्ती है। आम आदमी भी शाम होने पर बिजली का इस्तेमाल नहीं करता। पूरा शहर जैसे अंधेरे में अपना जीवन बिता रहा था। दार्जेलिंग एक war prone area होने के कारण कुछ ज़रूरत के खास precautions ले रहा था। वहाँ रात रुकने के बाद अगली सुबह तड़के ही Tiger hill देखने का प्रोग्राम बनाया था। साथ में कुछ खास गरम कपड़ों की तैयारी न होने के कारण सबने चटकदार लाल रंग की कंबल ही ओढ़ि हुई थी जो शायद होटल की ही थी। ये बड़े और झबरीले कंबल लगभग एक इंसान को ढकने के लिए काफी थे। दूर से देख ऐसा लगता Ku Klux Klan समुदाय के सदस्य किसी खुफिया अभियान पर जा रहे हों। बड़ी ही स्पष्ट याद है जब सारे Tiger हिल पर पहुंचे। कहते हैं पहले तो बहुत से सूर्योदय देखे पर सूर्योदय का वह सूरज पहली बार देखा। लाल पारे सा धधकता सूरज साक्षात पूर बस दो कदम दूर, ऐसा प्रतीत हुआ। रोज़ की ही तरह धुंधले कोहरे को चीरता अपनी रोशनी बिखेर रहा था।
शोभना सहरसा में थी और वह जाना थोड़ा मुश्किल था। पर फिर भी सारी बाधाओं को पार करते रास्ते मे अपना suitcase चोरी हो जाने के गम के बावजूद हम नए नए कारनामों का मज़ा लेते सहरसा पहुंचे। सहरसा में बड़ी बहन विनोबा के सर्वोदय आश्रम में करीब 3 महीनों से रह रही थी और नई तालीम के प्रोयोगों में सहायता दे रही थी। दिसम्बर, जनवरी के महीने में भी बिना कंबल के सोना यह सोच कर की इसी ठंड मे गरीब के बच्चे भी तो सो रहे होंगे “फिर मैं कैसे” ?। इस बदलाव के माहौल में ये 17 और 18 साल की लड़कियों ने कुछ दिनों तक वहाँ काम किया। बड़ी बहन ने छोटी को थोड़ा घुमाया। जहां वो नई तालीम के प्रचार में जाती वह उसे भी साथ ले जाती। स्कूल, कॉलेज और कुछ गाँव की सैर भी कराई। साथ ही बिहार मे घुसते जो सूटकेस चोरी होने का गम था उसे भी पूरा किया। खादी भंडार जाकर कुछ कपड़े सिलवाए। हर गाँव, शहर, स्कूल जा कर गांधी साहित्य बेचना और नई तालीम के तरीकों से बच्चों को पढ़ना, काफी जोश भरा काम था। अगर इंसान में जग बदलने का जोश न हो तो इस तरह के काम करना मुश्किल है। इन अनुभवों से आप खुद को जांच सकते हैं, पता लगा सकते हैं की आप किस level पर हैं। पहला तो ये कि क्या आपमें इतनी काबिलियत और जज़्बा है कि जिन विचारों को आप मानते हैं उसे असल में अपनी ज़िंदगी में भी उतार सकें। अपने so called comfort zone से बाहर निकालना आसान नहीं होता और जब आप निकलते हैं तब अंदाज़ करना आसान हो जाता है। दूसरा, के अगर इस तरह के अनुभव आपके युवा अवस्था में होते हैं तो एक अलग तरह का व्यक्तित्व बनने में सहायता मिलती है। कैसे आप उन चीजों को कर सकें जिनको आप मानते हैं, इसकी प्रेरणा मिलती है।
आठ दिनों तक सहरसा में रहकर अब आगे बढ्ने कि बारी थी। वहाँ से निकल रोसारा नामक छोटी सी जगह जाना था। छोटा होने के बावजूद काफी कुछ सुना था इस जगह के बारे में बिहार का पहला दलितों का आवासीय विद्यालय (ठक्कर बापा विद्या मंदिर) और आश्रम ( राजेंद्र आश्रम) यहीं की देन है। जिनके यहाँ जा रहे थे वे नामीगिरामी स्वतन्त्रता सेनानी रह चुके थे। डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद के करीबी मित्र होने के बावजूद बिहार के होम मिनिस्टर और ऐसे ही पदों को ठुकरा दिया था। उनका मानना था कि भारत देश कि आज़ादी के बाद अगर भारत को प्रगति के रास्ते पर लाना है तो अंतिम आदमी (जो समाज में सबसे पीछे और गरीब है) तक जाना और उसे आगे बढ़ाना ज़रूरी है।
अब ज़रा नायक कि बात कि जाए। यह बंदा जो अभी 22 साल का ही है दुनिया बदलने के सपने देखता है। भौतिक शास्त्र और गणित इसके पसंदीदा विषय हैं। दुनिया भर के विचारों की study करता है। सारे ism की उसे गहरी समझ है। बिहार राज्य के मुसहरी और सहरसा जिले में विनोबा के कहने पर इसने और इसके 2 और साथियों ने तिगड़ी बना कर ग्रामस्वराजय कि स्थापना के लिए जी तोड़ दिनरात मेहनत की है। सर्वोदय की विचारधारा पर पूरा विश्वास रखने वाली यह तिगड़ी, लू से चिलचिलाने वाली धूप हो की कड़ाके की घनघोर कुहासे वाली ठंड या की बारिश का मौसम ही क्यों न हो, न अपने काम से कभी निराशा ही हाथ लगने दी और न ही इन्होने अपना काम ही रोका। गाँव-गाँव जा कर लोगों की बैठक लगाना, उन सभाओं में ग्रामदन और ग्रामकोष के बारे में समझना। हर गाँव एक स्वतंत्र इकाई कैसे बने, कैसे भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध कराई जा सके। भूदान का इतिहास और आगे की प्रक्रिया। गाँव में शांतिसेना की स्थापना कैसे हो और ऐसे अनेक ही मुद्दों पर विचार विमर्ष होते। ये लड़के अपने कई practical disadvantages (छोटी उम्र, नई जगह, नए लोग, मौसम इत्यादि ) के बावजूद अपने पूरे जोशों खरोश के साथ गाँव वालों से आने वाले समर्थन का स्वागत करते और साथ ही नकार दिये जाने पर उसे स्वीकार भी करते। यह प्रक्रिया करीब 4 साल सहरसा और मुसहरी के गाँव में चली। इन बंदो का विश्वास और उत्साह अडिग रहा, आज भी है। शायद इसका कारण भी हमें उनकी भूतकाल की एक छोटी सी घटना से मिल जाता है।
धीरेंद्र मजूमदार सर्वोदय जगत के एक बड़े नेता रहे। गांधी विचार को अपने सजग चित्त से समझने वालों में थे। सर्व सेवा संघ की गोष्ठीयों और काम के सिलसिले में इनका मिलना होता रहता। ऐसी ही एक गोष्ठी में उन्होने इस लड़के को अपने पास बुलाया और कहा “सुनो, इधर आओ, हाल क्या है बताओ” हाल समाचार पूछा और बड़े ही आत्मीयता के साथ अपनी आवाज़ को रहस्यमई बनाते हुये बोले “ सुनो मेरी बात याद रखो। अगर तुम यह सोचते हो की तुम्हारी इसी ज़िंदगी में सम्पूर्ण क्रांति हो जाएगी और तुम revolution का चेहरा देख सकोगे तो यह सही नहीं होगा। क्रांतिकारी के लिए यह ज़रूरी है की वह यह भ्रम पाले की क्रांति होगी नहीं तो वो frustrate और depress हो सकता है”। इस बात को हुये शायद 40 साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं पर वो बंदा अब भी उतने ही उत्साह के साथ आज भी काम करता है।
तो अब हम आशियाना पहुंचे। आशियाना इनके घर का नाम है जहां बलदेव बाबू अपने परिवार के साथ रहते हैं। ब्राह्मणो का टोला और ये एक अकेला ऐसा घर जो non – Brahmin था। ऐसी जगह रहकर एक आश्रम और दलितों के लिए स्कूल खोलना और उनके लिए काम करना आसान नहीं रहा होगा। बहुत सी कठिनाइयाँ और विभ्भिन तरीकों का उपयोग करते हुये विरोधों का सामना करना पड़ा होगा। कहा यह भी जाता है या यूं कह लीजिये की एक कहावत है की आशियाना शिवजी के त्रिशूल पर टीका है। मतलब की ये जगह अनोखी है, जग से निराली है। यहाँ के लोग ऐसे काम करते हैं जिन्हें बाकी करने से हिचकिचाते हैं। हरिजनों के हाथों का बना खाते हैं, मुसहरों ( बिहार की एक दलित जाती) के लिए स्कूल खुलवाते हैं और चोरों की प्रसिद्ध जाति दुसाध के बीच काम करना, उनके जातिगत पेशे चोरी को खत्म करने का काम किया करते थे।
तो आशियाना (रुसेरा) पहुँचने पर बड़ी आवभगत के साथ स्वागत हुआ। महाराष्ट्र की तुलना में यहाँ बड़े ही नर्मदिली और अपनेपन से खातिरदारी की गई। घर के बीच बड़े से आँगन में ठंड की धूप सेंकते हुये नाश्ते का मज़ा लिया। हर तरफ कोई न कोई रहता जैसे ही प्लेट से कोई व्यंजन खत्म होता दिखे की बस फिर से परोस दिया जाता। समय बीता हंसी मज़ाक में शाम की बेला आई। हल्की नारंगी सारे वातावरण में छा गई। ठंड के कारण लकड़ी जलाने का इंतज़ाम किया जा रहा था। अहाते की सैर के लिए जैसे ही नायिका बाहर निकली ठीक बाए तरफ एक चौड़ी पगडंडी दिखती है। और सामने करीब एक फ़रलांग की दूरी पर एक कुआं आता है।
यहाँ इस कुएं की भी एक कहानी है। बलदेव बाबू के यहाँ प्रसिद्ध था की उनके यहाँ हरिजनो का आना-जाना मना नहीं है। आस पास के गाँव में आशियाने के लोगों को पानी भरने में परेशानी होने लगी और तभी सोचा गया की अपना ही कुआं खोदा जाए। कमबख्त कुआं खोदने वालों में से एक ने उसे गिरने की भी कोशिश की जिसकी निशानी आज भी उसके दीवार पर दिखाई दे जाएगी।
शाम के हल्के गुलाबी रंग में, जब शाम होने में अभी थोड़ी देर है। लड़की ने उस चौड़ी पगडंडी पर अपने कदम बढ़ाए। खाली पैर घास पर रखे जैसे ही वो आगे बढ़ी। दरवाजे से चारों तरफ नज़र दौड़ाई, देखा कूएं की तरफ जाने वाला रास्ता पीले और गुलाबी रंगों के लिली के फूलों से भरा है। ये देख लड़की ने अपने कदम उस ओर बढ़ा दिये। गुलाबी शाम गुलाबी फूलों को और भी गुलाबी बना रही थी। पगडंडी के किनारे लगे गुलमोहर और फलसे के पेड़ जैसे स्वागत में झुके छाते का काम कर रहे । उनमें से झाँकती किरणें, हरी घास (जिसे गाँव की भाषा में दूब कहा जाता है) पर गिरती शाम होने का एहसास दिलाती हैं। सामने देखा, कूएं पर खड़ा नायक bellbottoms, और check की खादी की शर्ट पहने, चौकोर काले रंग का चश्मा लगाए खड़ा कुछ सोच रहा था। नायिका कूएं पर पहुंची तो देखा सेनापति खड़े उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। पूछा “आपको सेनापति क्यों कहा जाता है” अपनी भरी पर मुलायम भरी आवाज़ से सेनापति ने उत्तर दिया “शायद इसलिए की मैं बचपन में बहुत बुलंद था”। सुन नायिका हल्का मुस्कुराइ। सेनापति ने पूछा “ तुम क्या पढ़ रही हो?, आगे जा कर क्या करने का इरादा है?, क्या बनने का इरादा है”? बड़े ही सीधे से प्रश्न का बड़ा टेढ़ा उत्तर आया “डॉ॰ बनकर गाँव में काम करना चाहती हूँ”। जवाब के ऊपर वापस जवाब ही कुछ सवाल के रूप में आया “डॉ॰ श्वइट्ज़र ने भी तो गाँव में काम किया था, पर उससे सेवा तो हुई क्रांति नहीं हुई”। ये बात उस 17 साल की लड़की के लिए थोड़ी अनोखी थी। सेवा और क्रांति के बीच का अंतर समझना थोड़ा अटपटा सा था। आगे जाकर नायिका ने ऐसे कई ही काम किए जिससे सेवा और क्रांति के बीच का अंतर दूसरों को समझने में आसानी हुई।    
मैंने National Express के ऊपरी मंज़िल पर बैठे इस लेख की शुरुआत की। उस घटना के लगभग 40 साल बाद मैंने इसे लिखना शुरू किया। सामने की सीट पर बैठे मेरे नायक, नायिका कुछ गुफ्तग फर्मा रहे हैं। मंद मंद मुसकुराते बीच बीच में मेरी ही तरफ देख रहे हैं, शायद मेरे ही बारे में बात कर रहे हों। क्या सोचा था की यही जोड़ा आगे जा कर एक बड़ी क्रांति में अपना छोटा सा योगदान देगा। अपने-अपने स्तर पर आगे आने वाली पीठियों के लिए, इस दुनिया को थोड़ा अच्छा बनाने की कोशिश करेगा और एक दूसरे के लिए better half का काम करेगा।