Sunday 17 July 2011

आज की ताज़ा ख़बर

आज शाम एक अजीब घटना घटी। मम्मी के कहने पर मैं बाज़ार के लिए तैयार हुई, थैला उठाया, लिस्ट बनाई की कौन सी चीज़ें लेनी हैं मुझे। सब्जी, सरसों तेल, और खोबर (सूखा नारियल)। लिस्ट बना कर और ज़रूरत के हिसाब से पैसे ले कर मैं निकली। पटना की पसीने वाली गर्मी और ऊपर से जहां तहां बिखरी हुई गंदगी के कारण वैसे ही दिमाग में खलल रहता है। अब तक तो सब ठीक चल रहा था मैंने केले वाले से केले का दाम पूछा हाजीपुर के केले छोटे होते है पर बड़े मीठे होते है। 16 रुपये सुन मैं चौंक गई “इतने से केलों का दाम 16 रुपये? यह तो नाइंसाफी है भाई।
किसी तरह बड़ी मुस्तैदी के साथ अपने कदम बढ़ाते हुये मैं आगे बढ़ाने लगी। पता नहीं कहाँ किस चीज़ के ऊपर पैर पड़ जाए। जगह जगह सब्जी वाले खड़े थे, और खरीददार खरीदी कर रहे थे। एक जगह मैं अच्छी सब्जियाँ देख रुक गई। सब का दाम पूछा “भिंडी कितने की है भैया , धनिया पत्ता कैसे दिये हैं आधा किलों परवल दे दीजिये ” इत्यादि। उस भीड़ भरी दुकान पर मैंने किसी तरह सब्जी तौलने को दी और मन ही मन हिसाब कर लिया। “50 रुपये हो रहे हैं ” सोच, मैंने सब्जी ली और पैसे दे कर मुड़ गई। मुझे किराने की दुकान भी जाना था। वहाँ पहुंची हि थी की एकाएक पीछे से किसी ने अचानक बड़ी रुक्षता से कहा “परवल का पइसा नहीं दीं है आप, परवल का पाइसा नहीं देंगी का ” मैं पीछे मुड़ी तो देखा उसी सब्जी वाले दुकान का एक लड़का मेरे पीछे खड़ा मेरी तरफ शक की निगाहों से देखते हुये बोल रहा था। मैंने शांति से कहा “दे तो दिये हैं, वहीं हिसाब किए थे ना ” । “ऊ सब हम नहीं जानते हैं दुकान वाला कर रहा है की आप पइसा कम दीं हैं सो हमको पइसा दीजिये हम जाते हैं” उसकी आवाज़ में बेशर्मी देख मुझे गुस्सा आया । मैंने कहा “रुको हम चलते हैं, यहाँ खरीद लें”। पर वो तैयार ही नहीं था। मुझे अपना काम जबरन छोड़ उसके साथ जाना पड़ा। वहाँ जाते ही मैंने पूछा “क्या हुआ, उस समय कितना पैसा दिये हैं हम, आपको याद नहीं है ”? मैंने उस लड़के से जिसकी उम्र कुछ 17 18 साल रही होगी पूछा। उसने कहा आपने पूरा पैसा नहीं दिया है । अचानक देखा उधर से एक उम्र में बड़ा आदमी ज़ोर से बोलने लगा "कितना हुआ है , आपको हिसाब नहीं आता है क्या"। उसकी आँखों में और आवाज़ में बेखौफ बेशर्मी देख मुझे गुस्सा आया । तीनों दुकानदार जैसे मेरे ऊपर बरस पड़े। उसे लग रहा था की मैं लड़की हूँ इसलिए कुछ बोलुंगी नहीं और उन्हे चुपचाप पैसे दे दूँगी। पर मैंने अपनी आवाज़ चढ़ाई और पूरे बिहारी tone में कहना शुरू किया “नौटंकी बंद कीजिये आप, कुछ बोले नहीं हैं इसलिए बकवास करेंगे आप”( यहाँ झगड़ते समय भी "आप" शब्द का प्रयोग अनिवार्य है, कम से कम इसी कारण झगड़ते समय शब्दों में थोड़ी शिष्टता दिखती है )। “हिसाब करना हमको नहीं, आपको नहीं आता है, कितना दिये है तौल लीजिये” उसकी तरफ उससे ली हुई सब्जियाँ लगभग फेंकते हुये मैंने कहा। उसे हिसाब कर सुनाया, तबतक दूसरा खरीददार भी मेरे पक्ष में बोलने लगा। वो आदमी अब भी मेरी तरफ घूरे जा रहा था पर अब उसके पास कोई बात नहीं बची थी बोलने को और मैंने उसे अच्छा खासा सुना भी दिया था। मुझे लगा की मेरे ऊपर कहीं ये इल्ज़ाम न लगा दें इसलिए मैं ज़ोर से बोल रही थी। मुझे अगल बगल के लोग भी देखने लगे। वहाँ खड़ी औरतें मुझे आखेँ फाड़ फाड़ के देखे जा रही थीं और वो दुकान वाला भी। उनका मुह बंद हो गया, मैंने अपना सामान उठाया और वहाँ से चल पड़ी।
महसूस किया की मेरे लड़की होने का मतलब वह ये निकाल रहे थे की ये तो कुछ बोलेगी नहीं। इसे कैसे भी दमसा लो ये अपना सर नीचे किए सुन लेगी। मुझे बुरा लगा और लगा की मैंने अच्छा ही किया जो उनसे ज़ोर से डाँटा। उन्हे दिखाना चाहती थी की लड़की से कैसे भी बात कर लोगे तो चल जाएगा ऐसा नहीं है। ऐसा क्यों है, की ऐसी घटना जो हो सकता है की पाठकों को बहुत ही साधारण लगे आज भी होती हैं। उस दुकानदार का यह सोचना की मैं लड़की हूँ इसलिए ज़ोर से आँखें निकाल कर बोल देगा तो मैं चुप हो सुनती रहूँगी क्या यह नहीं दर्शाता की इस समाज में लड़कियों को अगर छोटे से छोटा काम भी करना है तो किसी पुरुष का हाथ थामने की ज़रूरत महसूस कराई जाती है। यह मैं कहीं और तो नहीं देखती। फिर ये यहीं क्यों। यह चिंताजनक बात है।
मैंने देखा मेरे दोनों कान गरम हो गए और उनसे गरमी निकलने लगी। यह देख मुझे हंसी आ गई । बड़ी ही अजीब अवस्था थी हंसी के साथ गुस्से का मिश्रण था। ज़्यादातर मैं जब गुस्साती हूँ तो उस इंसान पर बहुत गुस्साती हूँ, पर बाद में, वो भी अपने दिमाग में, मन ही मन।
मैंने अपनी दूसरी खरीददारियाँ की और पापा को यह घटना सुनाने, किसी तरह अपनी हंसी दबाये, मैंने घर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये।

Saturday 16 July 2011

छुक छुक गाड़ी

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि” ये जुमला इन्सानों पर एकदम सही बैठता है। और बेचारे जानवरों को उसका फल हमारे साथ ही भुगतना पड़ता है। हमारी करनी का फल उन्हें भी भोगना पड़ रहा है। मेरे खयाल से इस बुद्धि कि एक उपज है हमारे अपने ही 20वीं सदी की जनमाई गई ट्रेन या की रेलगाड़ी।

हिन्द स्वराज पन्ना नं॰ – 39 हिंदुस्तान की दशा (रेल गाड़ी ) में महात्मा गांधी ने अपना मत साफ दर्शाया है। उन्होने इसके नुकसान भी गिनाए हैं। उन्होने तीन चीजों को भारत के लिए नुकसानदेह बताया है। डॉक्टर, वकील और ट्रेन। डॉक्टर और वकील कि सामाजिक व्यवस्था के नकारात्मक पहलू तो समझ में आते हैं, समझ आता है कि वह नुकसानदेह क्यों है। उनके स्वार्थी होने का नतीजा समाज को भुगतना पड़ता है और अब तो वह एक गंभीर रूप लेता जा रहा है। डॉक्टरों को तो मैं खुद भी भुगत चुकी हूँ। मेरे पापा की बीमारी के समय मेरी मम्मी और मामा की डॉक्टरी ही काम आई । अधकचरा ज्ञान रखने वाले डॉक्टरों की तो जैसे फ़ौज सी खड़ी हो गई है आम आदमी के सामने। और जैसे वह फ़ौज कह रही हो “आऔ, तुम्हें कहा आई॰ वी॰ लगाऊँ ”।
वकील जो नुकसान करते है वह भी साफ दिखता है। स्वार्थी वकील अगर अनैतिक वकालत करने पर उतारू हो जाएँ तो समाज के बुरे तत्वो का बढ़ना सुगम हो जाता है। महात्मा गांधी खुद एक वकील थे इसलिए वह यह जो बात कहते हैं और तर्क देते है वो मन को जंचता है।

पर “रेलगाड़ी ” ! रेल गाड़ी क्यों ? ये बात कुछ लोगों को हजम नहीं हो सकती। लग सकता है की भाई यह तो भारत को जोड़ कर रखने का एक बड़ा माध्यम है इसी के कारण तो भारत अखंड रहा और है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का पहला कदम है, इत्यादि। मुझे भी यही लगा, और उनके तर्कों को मन ने नकारा तो नहीं पर बहाने ढूंढ़ना शुरू किया। सोचा “ बात तो बड़े पते की है पर PRACTICAL नहीं है”।

छूक छूक गाड़ी में बचपन के वो अनगिनत प्रवास याद आ गए। बचपन से ले कर अब तक की वो असंख्य यात्राएं जो मैंने अपने परिवार, दोस्तों या फिर अकेले की थी बड़ी लुभावनी लगती हैं । नागपुर जाते वक्त वर्धा स्टेशन के दाल के पकौड़े। ठंड में झाँसी पर सुबह 3 बजे की कुल्हड़ वाली सौंधी महक की चाय। पंजाब के खेतों में नील गाय की झलकियाँ। शिमला के toy train की वो सैर, यह सारी बड़ी लुभावनी यादें हैं। तो फिर ऐसा क्यों ? ऐसा क्या है जो उन्हें ये कहने पर मजबूर करता है कि डॉक्टर और वकील के अलावा भारत कि इस स्थिति कि जिम्मेदार ट्रेन भी है।


आगे पढ़ो तो बात साफ होती है। जँचती हैं, तर्कसंगत लगतीं हैं। चार बातें ध्यान में आतीं हैं।

पहली बात जो ध्यान में आई वो थीं कि भारत की एकता और अखंडता के पीछे किसी जीवन विहीन लोहे के ढांचे का या फिर किसी नैतिकता विहीन सामराज्य का हाथ नहीं बल्कि भारत सैकड़ों सालों से इसकी संस्कृतिक मान्यताओं के कारण जुड़ा हुआ है। भारत को जोड़ने के लिए किसी एक राजा या साम्राज्य की ज़रूरत नहीं।
दूसरे, प्रकृतिक विपदाओं (बीमारियों का ) का तेज़ी से फैलने में ट्रेन कहीं न कहीं सबसे बड़ा साधन रही है। यह तो आप विदेश जाते समय भी देखते हैं कि वो कितनी सावधानी बरतते हैं जब कोई नया उनके देश में प्रवेश ले रहा होता है।

और फिर, असामाजिक तत्वों का देश और दुनिया में फैलना और फैलाना और भी आसान हो जाता है।


पर सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे लगती है वह है इसके कारण शुरू हुआ नुकसान किसानों को भी झेलना पड़ता है। अकाल कि संभावनाएं बढ़ जाती हैं। किसान लापरवाह हो, लालच में दूर जा कर भी जहां बाज़ार महँगा है वहाँ अपना अनाज बेच आते हैं जिस कारण जहां बाज़ार सस्ता है उस इलाके में अकाल कि नौबत आ जाती है।
मेरे खयाल से हमने वो हर संभव चीज़ कर दी है और प्रकृति के नीयमों के खिलाफ हर क्षेत्र में जा चुके हैं जिससे उसे नुकसान पहुंचे। बांध बनाने से ले कर परमाणु बम के ईजाद तक। और, इस मामले में भी हमने अपनी रफ्तार सामान्य से कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी है। यहाँ तक कि अब तो हमें हवाई यात्रा भी धीमी लगती है। सबसे तेज़ चलो कि हम दुनिया में सबके साथ नहीं सबसे आगे बढ़ जाएँ कि दुनिया को कब्जे में ही कर लें। ये असामान्य तेज़ी इन्हीं भावनाओं के कारण पनपी है। और इसी मानसिकता से लाया गया थी ट्रेन भारत भी। प्रकृति के दिये गुणों से हमे संतुष्टि नहीं। इस इंसान रूपी जानवर को “और ज़्यादा” की लालसा है। “मैं और मेरे” के साथ और ज़्यादा कि चाहत भी जुड़ गई है। विडम्बना यह है कि अब कोशिश के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता।

दो पहिये वाली गाड़ियों कि रफ्तार भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। अलग अलग कंपनियाँ ज़ोर शोर से इस प्रतियोगिता में जुटी हैं कि कौन सबसे पहले, और पहले से भी ज़्यादा तेज़ गाड़ी निकालता है। और हम ललचाई भरी निगाहों से उसके आने का इंतज़ार भी करते हैं। पुणे जैसे शहरों का हाल बेहाल इन्हीं दो पहियों कि गाड़ियों ने कर रखा है। मुसीबत यह है कि इसकी हमें आदत सी हो गई है। इसके विरोध में पुणे का एक युवा वर्ग एकत्र हो कर इसके खिलाफ अलग अलग तरीकों से प्रयास करता आया है। पर इन बड़ी कंपनियों कि काला बाजारी और साजिश में शामिल इस सरकार से लड़ना आसान नहीं। उनका कहना है कि इन दो पहियों कि गाड़ियों को कम कर अगर state transport कि बसों कि हालत सुधारी जाए और उन्हें इस्तेमाल में लाया जाए तो ऐसे शहरों को बड़ी राहत मिले। पर कौन सुनेगा उनकी और इन बातों समझेगा कौन।

रेल गाड़ी के मामले में तो सच कहूँ तो यह एक बहुत अव्यवहारिक कदम होगा अगर किसी ने उसका बहिष्कार कर दिया। मैं खुद भी यही चाहती हूँ कि एक जगह से दूसरी जगह मैं जल्द से जल्द पहुँच जाऊँ।

तो शायद संतोष इसी में हैं कि थोड़ी बहुत हालत को सुधारने कि कोशिश के साथ और इस छूक छूक गाड़ी की खराबियों को दरकिनार कर उसकी यात्रा का मज़ा लिया जाए।

Sunday 3 July 2011

हू हा !!!

मैं जब याद करती हूँ, अपने पिछले 15 साल तब, एक बहुत बड़ा तो नहीं पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय मेरी ज़िंदगी का सामने आता है। वह है मेरी खेलों में रुचि, खासकर एक ऐसे खेल में जिसे आम भाषा में आत्मरक्षा के लिए किया जाने वाला एक तरीका समझा जाता है। यह खेल है “कराटे”।

मैं जब तेरह साल की थी तब मैंने इसे शुरू किया। मेरी ज़िंदगी में इसका प्रभाव महत्व का है क्योंकि जब मैंने इसे शुरू किया तब से इसने मेरे अंदर बहुत से सकारात्मक बदलाव लाये।
हम जब भी नागपुर जाते मेरी माँ मुझे और मेरी दीदी को कुछ न कुछ नया सिखवाती। उनका आग्रह रहता कि हम सारी कलात्मक कलाओं को जाने और फिर जिसमें दिलचस्पी बढ़े उसे लेकर आगे बढ़ें। ये पहली बार था जब माँ ने मुझे नागपुर के एक मशहूर स्टेडियम जिसका नाम यशवंत स्टेडियम है, में ले गई। जब मैं पहली बार मम्मी के साथ स्टेडियम में घुसी तो उसके मुहाने पर ही हमें चौकीदार ने रोक लिया। पूछा “कौन से खेल में प्रवेश लेना है आपको”। उस बूढ़े चौकीदार का पूछना मिठास से भरा था। हमने बताया कि हम कराटे वालों से मिलना चाहते हैं। उस स्टेडियम में विभिन्न प्रकार के खेलों का अभ्यास किया जाता था। football, Boxing, basket ball, handball इत्यादि।
चौकीदार से पूछ कर हम अंदर कि तरफ मुड़े तो देखा, शाम की रौशनी में स्टेडियम का सारा वातावरण बड़ा रोमांचकारी लगा। खुले आकाश के नीचे कुछ लड़के और लड़कियां boxing का अभ्यास कर रहे थे तो कुछ football के खिलाड़ी warm-up। जैसे ही मैं माँ के साथ अंदर घुसी मेरे बिलकुल सीध में मुझे कराटे का uniform पहने कुछ 20 – 30 लड़के लड़कियां दिखाई दिये। उन्हे देखते ही मैं मन ही मन खुशी से नाचने लगी। वो सभी कुमीते (Fight) कि तैयारी कर रहे थे। मैंने देखा एक काला सा लड़का जिसकी ऊँचाई भी मेरी जितनी ही होगी (करीब 5.3 ) मुझे और मेरी माँ को वहाँ रुका देख हमारी तरफ आने लगा। उस लड़के का “गी” (गी कराटे के uniform को कहा जाता है) दूध की तरह सफ़ेद बिलकुल उसके दांतों से मेल खाता हुआ था, और उसकी आंखे तेज़ सी चमकती हुई थी। उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ मेरी माँ का अभिवादन किया और मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देखा। मुझसे प्रपत्र भरवाया गया, और अब मैं उस क्लास में भर्ती हो चुकी थी। मैं अपने teenage के शुरुआत में थी और मेरा वज़न बढ़ता ही जा रहा था।कोई भी मुझे अच्छा खासा स्वस्थ बच्चा कह सकता था। इसका मेरे मन और शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था। मेरी पीठ बात बे बात दर्द करती। जो की एक बहुत ही खराब लक्षण था। वो लड़का जो अब मेरा शिक्षक था उसने मुझे देखते ही बोला “तुम्हें अपना वज़न कम करने की ज़रूरत है”। और कुछ ऐसे शब्दों में कहा कि बात मन को चुभ सी गई। फिर क्या था शर्म से मेरे दोनों कान गरम हो गए और आँखों में आँसू बस आ ही गए समझो, ऐसा लगाने लगा। मैंने मम्मी की तरफ देखा।
थोड़ी देर बाद हमने “गी” सिलवाने के लिए दिया और अगले दिन की वापस इसी जगह आने की तैयारी मन ही मन करते हुये मैं घर आ गई। मुझे याद है और इस बात की बेहद खुशी भी कि मैं वापस अगले दिन उसी जगह पहुँच गई। अपने दिल के संकोच को हटा कर और शायद माँ की ज़िद के कारण मैंने उस इंसान का फिर से सामना किया जिसने मुझे मोटा कहा था। हाँ, तीन महीने बाद मेरी रंगत बदली हुई थी। मैंने 5 से 8 kg कम किया था और एक पतली दुबली और लंबी लड़की का रूप ले लिया था। मेरा कद एक से दो इंच बढ़ गया था और अब मुझे बड़ा ही हल्का महसूस होता था। हमारे शिक्षक जिन्हे हम शेंपाइ बुलाते। हमें बड़ी यातना देते थे। जी तोड़ने वाली मेहनत तो हमसे करवाते ही समय बे समय हमे मुक्के और लातें भी खानी पड़ती। वो ये बिलकुल नहीं देखते की सामने लड़का है या लड़की, वो हममें बिलकुल फर्क नहीं करते। जितनी मेहनत लड़कों से करवाते उतनी ही लड़कियों से। उनके बात बे बात के भाषणों में ये वाक्य बार बार आता, हमारी तरफ देख कर वो कहते “यह मत समझ लेना की तुम लड़की हो इसलिए तुम्हें मैं किसी प्रकार की छूट दे दूंगा, तुम्हारे अंदर इतनी हिम्मत और ताकत होनी चाहिए की तुम किसी लड़के से भी लड़ सकने की हिम्मत रख सको” और हम उनकी ये बात सुनकर मन ही मन सोचते “बच्चू , ये हमें नहीं छोड़ने वाला”। सच कहूँ तो उस यातना में हम सभी को एक प्रकार का मज़ा आता। वो लड़का हमारे अंदर जोश भर देता और हम वही करते जो वह हमें उन दो घंटो में करने को कहता। हम दो घंटे लगातार practice करते बीच में बिना विश्राम किए, बशर्ते की बारिश न हो रही हो। शुरुआती दस दिनों में मैंने बड़े ही जोरदार तरीके से मुक्के मारना सीखा। मुक्को में तीन प्रकार प्रमुख हैं। ऊपर, नीचे और बीच में मारना। फिर आई लातों की बारी जो मेरा पसंदीदा था। उसमें भी अलग अलग प्रकार थे। पर एक लात (kick) ऐसी है जिसे आप प्रतिद्वंदी के सीधा गाल पर मारते हैं। जिसमें बाद में जा कर मैं पारंगत हुई और भविष्य में इस किक के कारण मैं मशहूर हुई। फिर एक दूसरी किक थी जिसे बॅक किक कहते हैं और तीसरी और सबसे खतरनाक किक है राउंड किक। यह अगर किसी को पूरी ताकत के साथ और सही निशाने पर लगे तो उसका जबड़ा बचना मुश्किल है। इस खेल को आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो खुद को बचाने के भी कुछ प्रकार हैं। जिन्हे अँग्रेजी में ब्लॉक कहते है।



करीब एक महीने बाद मुझे मेरा पहला काता सिखाया गया। जो कराटे का मेरा पसंदीदा विभाग है। काता बहुत से कराटे के fighting स्टेप्स को जोड़ कर बनाया जाता है। आसान शब्दों में यह एक पूर्व नियोजित काल्पनिक लड़ाई है। जो मुख्यत: प्रतियोगिताओं में ही इस्तेमाल की जाती है। इसे judge करने के लिए पाँच निर्णायक नियुक्त होते है। जिनमें से चार हर एक कोने पर और एक ठीक सामने बैठा होता है। काता में हर चाल का परिपूर्ण होना, चेहरे का expression और वह व्यक्ति कितने आत्मविश्वास के साथ उसका पालन कर रहा है यह देखा जाता है। काता को कराटे की रीढ़ भी कहा जाता है। वैसे तो मैंने कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया था पर मेरे यादगार दो हैं। जिनकी खूबियाँ और घटनाक्रम मैं आपके साथ बांटना चाहूंगी।
मुझे बेहद पसंद है यह प्रतियोगिता क्योंकि यहाँ से आगे की सारी प्रतियोगिताओं में मैंने स्वर्ण पदक जीते थे। मुंबई की यह प्रतियोगिता राज्य स्तरीय थी और यह मेरी दूसरी प्रतियोगिता थी। पहली वाली शायद अनुभव कम होने के कारण और मेरे सारे प्रतिद्वंदी मुझसे अग्रज होने के कारण मैं हार गई थी। तो मुंबई की प्रतियोगिता में मैंने अपना जी जान लगा कर खेला था। अपना सौ प्रतिशत उसमें दिया था और उसका फल मेरे हाथों में था। मेरे हाथों में दो चमकते हुये स्वर्ण पदक थे। मुझे याद है, काता तो मैंने चुटकियों में जीत लिया था। इस प्रतियोगिता में मैंने छोटे स्तर का काता ही किया था। यहाँ आपने कौन सा काता किया है यह भी महत्वपूर्ण होता है। पर जैसा कि मुझे कराटे करते हुये ज़्यादा महीने नहीं हुये थे इसलिए मेरे पास ज़्यादा संग्रह नहीं था। लेकिन इस छोटे संग्रह में भी मैंने अपने अग्रज सारे प्रतिद्वईयों को हराया था। जिस कारण मेरा स्वागत तालियों के साथ किया गया था। इसे मैंने मुंबई के विरोध में जीता था इसलिए मेरे शिक्षक और सहपाठी बड़े खुश हुये थे। नागपुर और मुंबई के ग्रुप में हमेशा प्रतिद्वंदीता चलती क्योंकि हम ही थे जो मुंबईकारों को टक्कर देते, और जीतते भी थे।
मुझे मेरा कुमीते बहुत ही अच्छे से याद है। इस tournament के बाद मुंबई वालों के लिए मैं एक चुनौती थी। आपका, बारी बारी से आपके प्रतिद्वंदी के साथ कुमीते होता है, अगर आप जीते तो आप आगे गए अथवा आप पीछे ही जाते है। मुझे याद है दूसरे कुमीते में मेरी प्रतिद्वंदी ने नीयम के विरुद्ध जा कर मेरे चेहरे पर मुक्का मारा था। जिससे मेरा होठ फट गया था और खून निकालने लगा था। मेरे सर में एक ज़ोर का झटका लगा था औए एक सेकंड के लिए जैसे ब्लैकआउट हो गया था। इस बात से अंजान मैंने खुद को सम्हाला और फिर उठ खड़ी हुई। । मैंने referee की तरफ देखा, मुझे बड़ा अजीब लगा। वो और बाकी सब मेरी तरफ बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। मैंने सोचा “सब मेरी तरफ ही क्यों देख रहे है” इस बात की तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं देते हुये मैं अपनी जगह पर फिर जा कर खड़ी हो गई। मेरे सामने अभी उस विचार के ऊपर ज़्यादा ध्यान देने से ज़्यादा महत्वपूर्ण था फीर से खुद को तैयार करना। 3-4 सेकंड बीते पर जब referee ने फिर भी कुछ नहीं किया तो मैंने आश्चर्य भरी निगाहों से अपने सिर की तरफ देखा। वो भी मेरी ही तरफ देख रहे थे। फिर उन्हे ध्यान आया की मुझे शायद इस बात का ज्ञान ही नहीं की मेरे होंठ से खून निकाल रहा है। उन्होने मुझे इशारा किया। मैंने जैसे ही अपने होठ पर हाथ रखा मुझमे हल्की सी टीस उठी, और हाथों में लगे खून को देख मैं चौंक पड़ी।यह मेरा पहला खुना खूनी का अनुभव था। मैंने अपने हाथों पर लगे खून की तरफ देखा और न चाहते हुये भी मेरी नज़र उस लड़की की तरफ गई। मुझे पता था अगर मैंने उसकी तरफ देखा तो referee मेरे चेहरे के गुस्से को पढ़ लेगा, जो मेरे लिए ठीक नहीं होता।मैंने देखा, referee मेरे प्रतिद्वंदी को उसकी गलती पर डांट रहा था और दूसरों जजों को full penalty के लिए कह रह था। full penalty तब मिलती है जब विरोधी पक्ष ने जानबूझ कर नियमों का उलंघन करके हमला किया हो। लड़की के तरफ के उसके साथी referee तक को उसके इस निर्णय के लिए hoot करने लगे, जिससे वो और चिढ़ गया। इतनी ही देर में मेरा first aid भी हो गया। मेरे referee ने मुझसे पूछा की मैं तैयार हूँ? और मैंने सहमति में अपना सिर हिला दिया। Referee ने मुझे भी चेतावनी दी, उसे ड़र था की मैं कहीं उसके ऊपर टूट न पड़ूँ। पर मेरा योजना कुछ और ही थी। मैं शांत दिमाग से और सारे नियमों का पालन करते हुये tournament जीतना चाहती थी। referee ने उसे penalty दी और मुझे full point। उसने शुरुआत कहा और हम तैयार हो गए।
सब कहते तो हैं की वो मुझे buck up कर रहे थे सच कहूँ तो मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मन जैसे खाली सा हो गया था। और मुझे बस वह लड़की और उसके प्यारे गाल दिखाई दे रहे थे। जो की मेरा निशाना था। रणनीति यह कहती है, की लड़ाई के मैदान में दुश्मन को थोड़ा चकमा दो और फिर ज़ोर का वार करो। मैंने भी वही किया। उसे चकमा देती और वार करती। वैसे, वो भी कम तेज़ नहीं थी। पर दो तीन बार के बाद मैंने लगातार तीन पूरे points ले लिए। और समय की समाप्ती की घोषणा के साथ ही मुझे विजय घोषित किया गया। इसके बाद मैंने एक और round खेला। और मेरे हाथों में स्वर्ण पदक था। यह मेरा पहली प्रतियोगिता थी जिसमें मैंने काता और कुमीते दोनों में ही स्वर्ण पदक जीता था। फिर क्या था मुझे जैसे पदकों का चस्का सा लग गया। मुझे मेरे शिक्षक जानबूझ कर प्रतियोगिताओं में भेजते, क्योंकि जिस प्रतियोगिता में मैं गई, समझो दो स्वर्ण पदक पक्के हैं।
इस प्रतियोगिता के अंत में senior ब्लाक बेल्ट कुमिते होना था। जिसे देखने मेरे माँ पिता और डेनियल चाचा भी आए थे। अपने senior को खेलते देखना एक अलग ही रोमांच पैदा करता है। और रोमांच चरम सीमा पर रहता है जब फाइनल चल रहा हो। पूरा स्टेडियम जैसे गूंज जाता है। सारों का excitement से और लगातार चिल्लाने के कारण गले का बुरा हाल रहता है। और सब तब और उत्तेजित हो जाते हैं जब अपना सीनियर जीत रहा हो और referee पक्षपात कर रहा हो। हाँ, वो पक्षपात ही कर रहे थे क्योंकि हम साफ साफ देख पा रहे थे की कहाँ point मिल सकता है, और वो जान बूझ कर नहीं दे रहे थे। उनका पक्षपात करना इसलिए था क्योंकि जो प्रतियोगी हमारे सर के विरुद्ध खेल रहा था वह वहाँ के मुख्य संचालकों को प्रिय था, और जो ऊपाधी उस match को जीत कर मिलती वह काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। उसकी हार जैसे वहाँ के संचालकों की हार होती। हम वह अन्याय देख (हमारे लिए वह अन्याय से कम नहीं था) उग्र हो रहे थे पर वह थे जो हमें इशारों से शांत रहने का इशारा कर रहे थे और खुद तो वह थे ही। मैंने उन्ही से सीखा था, शांत दिमाग से खेलना। खैर होना क्या था। उन्होने इतना अच्छा खेला की उन्होने खेल जीत लिया, और उपाधि भी।
यहाँ एक और टूर्नामेंट की बात बताती हूँ आपको। अब मैं अग्रणीयों में गिनी जाती थी और अब मुझे काफ़ी अनुभव भी हो चला था। इस बार हम आजमेर गए। वहाँ हमारा राष्ट्रिय स्तर की
प्रतियोगिता थी। महाराष्ट्र की तरफ से सिर्फ नागपुर वालों को ही चुना गया था महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए, इसलिए हमारे कंधो पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी थी। महाराष्ट्र प्रमुख, भी वहाँ मौजूद थे हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए। सच कहें तो उनके वहाँ रहने से हम ज़्यादा दबाव ही महसूस कर रहे थे। मैं अपने वर्ग में अकेली थी तो इस कारण मुझ पर मेरे स्तर के प्रतिद्वंदीयों को हारने की ज़्यादा ज़िम्मेदारी थी। थोड़ी अधीर हो रही थी मैं। मैं अच्छे से जानती थी मेरे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को। पर जब प्रतियोगिता शुरू हुई तो इससे ज़्यादा आसान कोई और चीज़ नहीं लगी । जब मैंने काता और कुमिटे दोनों जीत लिए और उन्हे ले कर मैं सर के पास गई तो वो मुझे ले कर तुरत हमारे प्रमुख के पास ले कर गए। उनका पैर छू कर मैंने आशीर्वाद लिया था और खुश मन से वापस अपनी जगह अपने दोस्तों को प्रोत्साहित करने आ गई थी। मेरे दोस्तों में से कुछ का अभी भी कुमीते बाकी था।
अजमेर में हम प्रतियोगिता के बाद अजमेर शरीफ भी गए। और वहाँ के वातावरण और सूफी संगीत का आनंद भी उठाया। अब लगता है तो सोचती हूँ अच्छा ही किया जो हम अजमेर शरीफ़ पहले नहीं गए नहीं तो हमारे जीतने का श्रेय भगवान जी ले जाते क्योंकि हमारे समूह में ऐसे लोग भी कम नहीं थे जो यह आराम से कह देते की भाई ये तो सब ऊपर वाले की कृपा का नतीजा है। अजमेर की यह प्रतियोगिता मेरे लिए खास है। क्योंकि अब मैं एक national champion थी।



2000 में मैंने अपनी अंतिम प्रतियोगिता खेली थी। उसके बाद चाह के भी मैं फिर कभी practice के लिए या किसी प्रतियोगिता में भाग लेने नहीं जा पाई। क्योंकि अब मेरी प्राथमिकताएं कुछ और थीं। मेरे सामने मुझे दिख रहा था की अब मुझे अपनी सारी जिंदगी बनानी थी। मैं सिर्फ इस खेल तक सीमित नहीं रह सकती थी। मुझे आगे बढ़ना था और मैंने वही किया। कुछ अभी भी है जो अब भी वहाँ जाते हैं और 11 साल से ऊपर हो आया की वे अब भी उस खेल को खेलते हैं। पर मेरे लिए बस वो तीन चार चमकीले साल ही काफी थे। मुझे जो फायदा उस खेल से लेना था मैंने ले लिया।
यह सारी यादें बताने का मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना था कि मैं लोगों को बता सकूँ मेरी भावनाएं । मुझे लगता है कि हर किसी को किसी न किसी खेल में आगे बढ़ना चाहिए। खास कर कराटे एक ऐसा खेल है जो आपको physically तो मजबूत बनाता ही है मानसिक तौर पर भी आपके अंदर एक आत्मविश्वास का संचार करता है। लड़कियों के लिए तो यह एक पारस पत्थर है। यह खेल आपको ज़्यादा सजग, चौकन्ना, और ध्यान केन्द्रित करना सिखाता है। समय बीतने के साथ इसे आत्मरक्षा के रूप में ही प्रस्तुत किया जाने लगा जो एक हद तक ही सही है।
मैं अब भी जब नागपुर जाती हूँ, मेरे शेंपई से मिलती हूँ। उन्हे झुक कर नमस्कार भी करती हूँ (आपने यह नमस्कार बहुत बार चाइनीज़ फिल्मों में देखा होगा)। इसे कहते समय हम चाइनीज़ में अब भी कहते (Aari gato gojai masta).