Friday 24 June 2011

खुद का साक्षात्कार

दस दिन का विपश्यना शिविर करने के बाद (लगभग 9 साल बाद) ये मेरा तीसरा शिविर था, दसवें दिन हमें पता चला कि गुरुजी (गोयंका जी ) बुद्ध पूर्णिमा के दिन ग्लोबल पगौड़ा आएंगे। किस समय, कितनी देर रहेंगे ये पता नहीं था। पर जैसे ही मेरी माँ ने मुझे ये खबर सुनाई, मेरी खुशी कि सीमा ही नहीं थी। ये मेरा तीसरा शिविर था। इस शिविर में मैंने अपने बारे में बहुत खुछ सीखा था। खुद को जंजालों से पूरी तरह नहीं तो थोड़ा ही सही, खुद ही, मुक्त भी किया था। मुझे मेरी चिंताओं और खुशी में समता मे रहना, मैंने खुद को अपने बलबूते पर सिखाया था। दस दिन (झूठ न बोलूँ तो ये पहली बार था जब मैंने दसों दिन बात नहीं कि और सारे नीयमों का पालन किया ) मुझे खुद में खुद के कारण सकारात्मक परिवर्तन देख कर अच्छा लगा। तो ऐसे समय जब मुझे पता चला कि शायद गुरुजी को देखने का मौका मिले, तो हमने सोचा की हमारी कोशिश, सारे कामों को सारे कामों को साथ साथ करते हुये यह भी रहेगी की उनको एक बार देखा जाए। तो हम ईगतपुरी से पुणे आये और दिन बीतते गए। हम रोज़ दो घंटे विपश्यना करने की कोशिश करते और 50 % हमें सफलता भी मिली। हम अपने काम में पुणे में इतने व्यस्त रहे की 17 तारीख कब आई पता ही नहीं चला। इस बीच मैं बड़ी सतर्कता से खुद मे आए परिवर्तनों को देख रही थी और नोटिस भी कर रही थी। सतर्कता इसलिए थी, क्योंकि मैं ऐसे परिवार से हूँ जहां मेरे पिता, माँ, दीदी और अन्य परिवार के लोग झूठे कर्मकांडों पर विश्वास नहीं रखते। उनका सख्त विरोध भी करते हैं, और उन्हे स्पष्ट तौर पर दुनिया को दिखने में (जहाँ जरूरत पड़े) पीछे भी नहीं रहते।
मैं देख रही थी की क्या मुझमें सच में परिवर्तन हुआ है, या यह सिर्फ़ मेरा वहम है, जो अंधश्रद्धा तो नहीं। और मैंने देखा की उनमें से कुछ भी वहम नहीं था। जो परिवर्तन मेरे अंदर आए वो मुझे साफ़ दिखाई दिये, अथवा परिवर्तन नहीं हुआ है यह भी मैंने देखा। और बड़ी तटस्थता के साथ देखा कि “मुझमें यह परिवर्तन हुआ है, और यह नहीं हुआ है ”। कहीं guilty consciousness महसूस नहीं होने दिया।
तो जब “17 मे” को हम मुंबई के लिए रवाना हुए, और दोपहर तक वहाँ पहुंचे तो थक भी गए थे, और भूख भी लग आई थी। पापा के पुराने मित्र डेनियल भाई और हंसा बहन (भाई ओर बहन सम्बोधन गुजराती में किसी को आदर देते समय लगाया जाता है) के यहाँ रुके। अगले दिन के कार्यक्रम का हिसाब किताब किया तो पता चला, कि मुलुंड, जहाँ हम रुके थे वहाँ से ग्लोबल पगौड़ा जो Essellworld के पास था, जाने में 3 घंटे लगेंगे, और वहाँ अगर हमें समय पर पहुँचना है तो हमें 4 बजे ही उठाना पड़ेगा। अगर मैं पहले कि होती, तो 4 बजे उठने का समय सुनकर सोचती कि चलो आज तो रात भर का जागरण है, या फ़िर माँ मुझे बड़े ही मुश्किल से उठाती। पर सुबह 4 बजे उठाने कि आदत मुझे विपश्यना शिविर मे ही लग चुकी थी इसलिए मुझे सुबह उठाने में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई।
हम तैयार हो कर बस स्टैंड गए और वाहब से गोराई के लिए सीधी जाने वाली बस पकड़ ली। Coincidence था कि जाते समय ही हमें दो बहने और, जो वहीं जा रही थी मिल गईं। और 3 घंटे का रास्ता हमने साथ ही तय किया। मुंबई की उमस भरी गर्मी में जब हम गोराई beach पर उतरे तो वहाँ कि तीखी कच्ची मछ्ली कि गंध ने बरबस हाथ को नाक पर आने के लिए मजबूर कर दिया। टिकिट काउंटर पर भी दुपट्टे से अपना नाक दबाये और बीच बीच में हाथ हटकर यह देखते कि कोशिश करते हुए की गंध चली गई क्या? किसी तरह टिकिट ले ली।
जब स्टीमर पर बैठे तो एकाएक सामने मेरी विपश्यना शिविर की साथी दिख गई। वो भी अपनी माँ जिन्होने कई बार शिविर किया है और अब व्यवस्थापकों में भी हैं, मैंने उन्हे अपने पास बैठने का न्योता दिया, और फ़िर फोटो session शुरू हुआ।
पगौड़ा और उसकी भव्यता हमें दूर से ही दिखाई दे रही थी। जैसे जैसे हम पास पहुँचने लगे वैसे वैसे मेरा excitement और बढ़ता गया। फ़िर ध्यान आया। “अरे मुझे तो समता में रहना है ”। पर समता में रहने का प्लान कहाँ चला गया पता नहीं, और फ़िर तो ऐसा लगा जैसे समुद्र की लहरों के साथ मुझमें भी तरंगे उठ रही हों। उन्हे और पगौड़ा दोनों को देखते हुये और मन ही मन खूब खुश होते हुए हम उस किनारे पहुंचे। जहाँ से एक तरफ का रास्ता Essellworld की तरफ जाता था, और एक पगौड़ा की तरफ। पगौड़ा की तरफ जाते हुये मुझे ध्यान आया की मुझे Essellworld जाने की बजाय पगौड़ा जाने में अंतरमन से खुशी हो रही थी। यह ग्लोबल पगौड़ा अपने में ही एक अजूबा है, इसकी भव्यता और सुंदरता के कारण तो है ही, Civil Engineering की द्रुष्टि से भी यह एक अप्रतीम नमूना है। इसके शुरुआत में Beams हैं जो पूरे ढांचे को सपोर्ट करती हैं, और उसके बाद कोई beam कोई pillar नहीं बनाया गया है। ये शायद मैं दुनिया का आठवाँ अजूबा देख रही थी। इतना भव्य कि आकाश में एक और आकाश नज़र आ रहा था, जिसमें सच में पक्षी भी उड़ रहे थे (ये सिर्फ़ अंदाज़ा ही कर सकते हैं कि वो पक्षी कबूतर रहे होंगे )। इस पगौड़े कि एक और खासियत यह है कि ये दुनिया का इकलौता पगौड़ा है जहाँ पूजा पाठ नहीं बल्कि कुछ रचनात्मक काम किया किए जाते हैं।
नाश्ता करने के बाद हम ध्यान के लिए बैठे। गुरुजी तीन बजे आने वाले थे। और उनके 1 घंटे के प्रवचन के बाद हमें छुट्टी मिलती। कहते हैं कि कोई काम अगर साथ में करो तो वो काम और अच्छे से होता है। शायद यह नीयम यहाँ भी लागू होता है। 3 घंटे का समय ध्यान करने में कैसे बीता, पता ही नहीं चला। हाँ, बीच बीच में एक- एक घंटे के अंतराल पर पाँच मिनट का विश्राम दिया जाता था, फ़िर दोपहर के खाने का भी विश्राम आया जो एक घंटे का था। खैर, समय बीता और गुरुजी के आने का समय पास आया। वहाँ के व्यवस्थापकों ने Mike पर घोषित किया कि गुरुजी के आने तक आप अपना ध्यान करना जारी रखें। पर वो कहाँ होना था। उनका यह कहना खत्म हुआ, कि मेरी दोनों आंखे खुली। अगल बगल देखा तो एक तरफ मेरी मित्र भी मेरी ही तरफ देख रही थी। हम दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए, और उसी क्षण हमने मन ही मन आर्य मौन कि समाप्ती की घोषणा कर दी। दूसरी तरफ देखा तो एक 30 - 35 साल की महिला अभी भी बड़े ज़ोरों शोरों से ध्यान करने में जुटी हुई थीं। उसे देख कर एक सेकंड के लिए लगा की, " अरे यह ठीक नहीं, मुझे भी ध्यान करते रहना चाहिए "। और मैंने फिर से अपनी आँखें बंद कर लीं। पर वह सिर्फ़ ध्यान करने की कोशिश भर थी। ध्यान कहाँ लाग्ने वाला था। मैंने आँखें फ़िर खोल दीं उसी समय पीछे कुछ शोर सा हुआ, और मैंने सोच की इस आर्य मौन के समय कहाँ से, और कौन शोर कर रहा है। पीछे देखा, तो भीड़ की भीड़ पगौड़ा के अंदर आ रही थी। जो लोग अंदर आए उनमें से कुछ ने शायद विपश्याना को शमझा हो, और जो ध्यान कर रहें हैं उन्हे दिक्कत न हो ऐसा सोचा हो। पर ज़्यादातर लोग ऐसे थे जिनहे विपश्याना से कोई सरोकार नहीं था। शायद पहली बार आए थे। खैर, इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं, शुरुआत तो पहली बार ही होती है। और मान लें की ये उनकी शुरुआत ही थी।
सभी से विनम्र विनती की गई कि, जब गूरुजी आयें तो सभी अपने अपने स्थान पर ही बैठे रहें।
पगौड़े में आठ दरवाज़े हैं और सभी दरवाजों के ऊपर हिन्दी व इंगलिश में उन्हें क्रमांकित किया गया है। मेरे ध्यान मे आया कि दरवाज़ा नंबर 1 दूसरे दरवाजों से थोड़ा बड़ा है। मैंने अनुमान लगाया कि शायद यहीं से गूरुजी आएंगे। और हुआ भी यही। एकाएक हॉल में एक हलचल सी मची, पर कोई भी अपनी जगह से उठा नहीं। देखा, तो एक कार्यकर्ता गूरुजी और उनकी पत्नी (इलायची देवी) दोनों को wheel chair पर लेकर आ रहे थे। मुझे यह पहले से ही पता था कि गूरुजी अब wheel chair पर ही आते जाते हैं। और जायज़ भी है। 87 कि उम्र में वो इतना सब कर प रहे हैं यही काफ़ी है। मुझे लगा था कि गूरुजी के आने पर मैं भाव विव्हल हो जाऊँगी और शायद मुझे रोना भी आए। पर मुझे रोना नहीं आया, हाँ उन्हे देख कर मुझे सच्चे मन से खुशी ज़रूर हुई ।
गूरुजी का प्रवचल एक घंटे चला जिसमें उन्होने बहुत सी बातें बताई। उन्होने विपश्याना नाम का मतलब, उसका इतिहास और उसके फायदे बताए।
विपश्याना का संधि विच्छेद करें (वैसे यह शब्द पुरातन भारत में इस्तेमाल होता था, और आप इसे अब किसी भी शब्दकोश में नहीं देखेंगे) तो ये दो भागों में टूटता है, एक "वि" दूसरा "पश्याना"। पश्याना अर्थात खुद को देखना और अगर वि जोड़ दिया तो अर्थ हुआ खुद को विशेष रूप से देखना। सुनने में ये एक बहुत ही साधारण अर्थ का शब्द लगता है, पर ध्यान दें तो खुद को देखना यही सबसे महत्वपूर्ण बात लगेगी। खुद कि बुराइयों और अच्छाइयों को देखना और मान लेना, पूरी तटस्थता के साथ, यही तो है विपश्याना। बात बहुत साधारण है। आप समाज में या खुद में बुराइयों को देखते हैं। Inferiority complex और superiority complex को पाल कर रखते हैं। जिस दिन बिना guilt महसूस किए हमने माना कि "हाँ, मुझमें यह बुराई है", उस दिन से वो समाज या व्यक्ति अपने स्तर पर उसे दूर करने की कोशिश करता है। जब तक माना ही नहीं तो सुधारना कैसा। हाँ, यहाँ एक और बात है। यहाँ आपको ही यह काम करना है। खुद को ही, खुद से लड़ना है। कोई भगवान या देवता (अगर है भी) तो वो आपको इन सभी परेशानियों से निकालने के लिए अवतरित नहीं होगा। इसलिए, थोड़ा कठिन है, आसान नहीं। दूसरा इसे कोई भी जाति या संप्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक हो, कर सकता है। क्योंकि, फ़िर से, इसमें कोई भगवान या संप्रदाय शामिल नहीं। कोई बाबा या भगत शामिल नहीं। आप खुद शामिल हैं, और कोई नहीं। मैंने यहाँ धर्म कि जगह संप्रदाय शब्द का इस्तेमाल कर रही हूँ। धर्म और संप्रदाय में ज़मीन आसमान का फर्क है। इस फर्क को बताने में मैं अभी नहीं जाऊँगी। नहीं तो दो पेज और लिखना पड़ेगा। विपश्याना का फायदा तो आप तब देखेंगे जब आप इसे खुद करेंगे। क्योंकि सभी इंसानों के व्यक्तिव के हिसाब से उनके अपने व्यक्तिगत फायदे या नुकसान होते हैं। क्योंकि उनके अपने अपने अलग अलग complexes भी होते हैं। मैं सोचती हूँ कि मैंने ये क्यों किया । मैं विपश्याना करने क्यों गई तो ध्यान आता है की इसमें मेरे परिवार के संस्कार मुझसे जुड़े हुये हैं। मेरी माँ , पिता, दादा, दादी, नानी चाचा चाची सभी धर्म निरपेक्ष, बेकार के कर्मकांडो के सख्त विरोधी रहे हैं और अपने स्तर पर उनके लिए जितना बन पड़ता है काम भी किया है। तो, जब मैंने सुना की इसकी क्या खूबियाँ हैं, तब मुझे यह सारी बातें जँची। और लगा की अपनी पूरी ज़िंदगी में से 10 दिन निकाल के जाना और कुछ नया सीखना बुरा नहीं। जहां ये तो पक्का था की फायदा हो न हो नुकसान नहीं होगा, इसलिए गई। ऐसा नहीं की ऊपर लिखी सारी बातें मैं पहली बार पढ़ या सुन रही हूँ। मैं शायद इन सभी विचारों के संपर्क में तब से हूँ जब से मैं माँ के पेट में थी। और जब से बोल्न और समझना सीखा तबसे इन एकता, सर्वधर्म समभाव, असंग्रहा की बातें मई अपने पापा और माँ से जानती आई हूँ। मुझे याद है रात में, पापा, मुझे मेरी दीदी और माँ सब के साथ बैठते और मेरी दीदी कोई एक साहित्य की (गाँधी, विनोबा या जयप्रकाश) पढ़ती और बीच बीच में जहां समझ नहीं आता वहाँ पूछती भी जाती। हाँ, मुझे वो कितना समझ में आता यह याद नहीं पर कान पर से होते हुये दिमाग में कुछ हलचल तो पैदा करता ही होगा।
पगौड़ा में गुरुजी के प्रवचन में वो अंत के समय बार बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि, इस विद्या को दूषित न होने देना, इस विद्या को किसी संप्रदाय के बाड़े में न बांध लेना। देखना, ध्यान देना, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।
अंत में उन्होने भजन गया (भजन शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रही हूँ क्योंकि कोई भी अच्छा गान भजन ही कहलाता है न)। “सबका मंगल हो”, इस भजन इस भजन गाने के साथ मुझे ध्यान आया कि मैं भी उसे मन ही मन दुहरा रही हूँ। थोड़ा अजीब लगा, पर फिर सोचा कि अरे गान ही है न और वह भी सब के मंगल कामना का गान, इसे दुहराने में क्या बुराई है। मेरा मन शुद्ध ही होगा चाहे दूसरों की शुद्धि हो या न हो।
उन्हे और उनकी जीवन संगिनी जो हर कदम पर उनके साथ बराबरी से रही हैं को, कार्यकर्ता आया और ले जाने लगा। वो भजन ग ही रहे थे और मैं उसे दुहरा ही रही थी कि देखा “अरे, वो जा रहे हैं” और अनायास ही मेरी आँखें भर आई। बगल में देखा तो मेरी मित्रा कि भी आंखे ड़बड़बा आई थी। मेरी माँ थोड़ी दूर बैठी पर बैठी आँखों के आँसू पोंछ रही थीं। पूरा पगौड़ा जैसे शांत और स्तब्ध होकर उन्हें जाते हुये देख रहा था। मेरी नज़र मेरी मित्र से मिली और हमने डबडबाई आँखों से क्षण भर के लिए एक दूसरे की तरफ मुस्कुराते हुये देखा और फिर से उन्हे जाते हुये देखने लगे।
मैं सोचती रही, कौन है आज के समय में, कितने लोग हैं जो सच में मन से, अपने रोम रोम से यह चाहते हैं की सबका मंगल हो, सबका कल्याण हो और सबकी स्वस्ति मुक्ति हो !!!


Saturday 18 June 2011

हिंसक और अहिंसक

कुछ दिनों से एक बात मेरे मन में बीच बीच में घूम जाती थी। महात्मा गांधी की किताब हिन्द स्वराज, मैं तीसरी बार पढ़ रही थी। मैं जब भी इस किताब को पढ़ती हूँ, मुझे हर बार कुछ नए प्रश्नों और उनके उत्तरों के गुच्छे मन में हलचल पैदा करते हैं। हिन्द स्वराज पुस्तक पेज नंबर 30, (हिंदुस्तान की दशा – 2 और 3) के प्रशनावलियों ने खास करके 2 के अंतिम प्रश्न ने इस बार मेरे मन को आकर्षित किया। जिन्होने यह किताब पढ़ी है वो जानते हैं की इस किताब का मूल लेखाचित्र, सवाल और जवाब (प्रश्नोत्तर) के तर्ज़ पर लिखा हुआ है।
        हिन्द स्वराज सिर्फ 80 पन्नो की पुस्तक हमें बहुत कुछ सिखाती है

विचार घूमे और सोचने लगी की हिंसा है क्या ? उसकी सीमा क्या है ? क्या यह किसी खास जाति या संप्रदाय को मानने वालों में है ?
यह सवाल मैंने अपने एक दोस्त से किया। उसका उत्तर उतना ही सरल और आसान था जितना की प्रश्न। उसने कहा “जहां तक हिंसक होने की बात है, सबसे ज़्यादा हिंसक तो आदिवासी होते हैं। फिर उन्हे तो हिंसक होने की संज्ञा नहीं मिलती” मुझे यह उत्तर जंचा, पर फिर भी कुछ शंकाएँ मन में थीं। मन दूषित हो रहा था, और उसकी बातों को गलत साबित करने के लिए नए नए बहाने ढूंढ रहा था। इसलिए यही सवाल मैंने अपने पिता से किया। इसपर उन्होने मुझे बहुत ही सरल शब्दों में कुछ मुद्दे बताए जिससे मेरे नाम का भ्रम खत्म हुआ।
ख़ान अब्दुल गफार ख़ान

मुद्दे इस प्रकार थे। उनका कहना था कि इंसान अगर धर्म या परंपरा में पड़ कर हिंसा करता है , जैसे कि बली चढ़ना और हलाल करना, इत्यादि तो वह हिंसक प्रवृत्ति का है ये आप नहीं कह सकते। अगर एक तबका अपनी दिनचर्या में भोजन जुटाने के लिए हिंसा करता है (किसी जानवर को मारता है) तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व हिंसक है यह नहीं कहा जा सकता। देखने में आया है कि कितने ही शाकाहारी जो प्याज़ और लहसुन कि गंध पर भी नाक दबा लेते हैं, स्वभाव में ज़्यादा हिंसक होते हैं। और कितने ही लोग जो शायद सप्ताह में 5 दिन मांसाहार करते होंगे, उनमें हिंसक स्वरूप कम देखने को मिलता है। कुछ लोग कहेंगे यह सच नहीं जो शाकाहारी नहीं उन्हे हिंसा करने में उतनी कठिनाई नहीं होती । हाँ, शाकाहार आपकी मदत करता है। मेरा अनुभव यह कहता है की शाकाहार सिर्फ मनन करने में मदत करता है। उदाहरण भी सामने ही है और हमें उसके लिए इतिहास में ज़्यादा पीछे जाने की भी ज़रूरत नहीं। ख़ान अब्दुल गफ़ार ख़ान इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उनकी कौम पख्तून, खूंखारों में भी खूंखार और बहादुर मानी जाती है। पर जब देश की आज़ादी की बात आई और उनके सत्याग्रह की बात आई तो उनका नाम बहादूरों और अहंसिक सत्याग्रहियों की सुची में सबसे आगे की पंगति में हमेशा रहेगा। कहा जाता है की सत्याग्रह करते हुये, वह सब निडरता से, बिलकुल अड़िग होकर अंग्रेजों का मुक़ाबला करते थे। अंग्रेजों और उनके चेलों की नाक में दम कर देते। वो भी सोचते होंगे “इनके ऊपर कितने भी सितम करो ये इतने निर्भय हो कर बिना हथियार उठाए कैसे लड़ रहे हैं”।
यह तो एक बात हुई।  हिंसा के कई प्रकार हैं। हिंसा शारीरिक भी होती है और मानसिक भी। और सच कहें तो मानसिक, ज़्यादा हानिकारक होता है। इस तरह की हिंसा इंसान आम ज़िंदगी में, प्रतिदिन की दिनचर्या में कई बार करता है। उसकी सीमा बंधनी बहुत ज़रूरी है और वो ज़्यादा चिंताजनक है।
फिर एक संस्कृतिक हिंसा भी है। उदाहरण के तौर पर यूरोप की संस्कृति का मूल ही इस पर आधारित है। अगर इतिहास पर दृष्टि डालें तो रोम का इतिहास साफ़ साफ़ दिखाता है और इस बात की पुष्टि भी करता है। हाँ, और अगर कोई ये कहे की ये तो इतिवृत हुआ, वर्तमान परिस्थिति ऐसी नहीं है। यूरोप प्रगति का एक शानदार नमूना है, और किसी का भी मार्गदर्शक बन सकता है। तो जनाब, यह सरासर उसकी भूल है। वो भूल रहा है की अब वहाँ की संस्कृति सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा की रह गई है। अगर आप गौर करें तो इस तरह के स्वभाव के जड़ में हिंसा ही है। और अगर यह स्वभाव और कुंठित हो जाए तो साफ़ साफ़ उखाड़वाद की नीति जन्म लेती है। क्योंकि तब इंसान आगे बढ्ने के लिए किसी भी हद तक जाता है। आगे बढ्ने के लिए अगर उसे दूसरे के सर पर लात जड़ कर भी आगे निकलना पड़े तो भी उसे कोई गिला नहीं, चाहे दूसरा इसमें कुचला ही क्यों न जाए। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की गांधी जी ने ये भी कहा है की दुनिया भर की सारी संस्कृतियाँ, भारतीय संस्कृति भी हिंसा पर ही आधारित है। हाँ भारतीय संकृति कुछ कम है।  अब यहाँ कृपया कुचलना शब्द को शब्दशः नहीं लिया जाए। कुचलना शब्द का मतलब यहाँ दूसरे को नुकसान पहुंचाना और आगे बढ़ना। इस उखाड़वाद को कुछ लोग छोटे या मोटे रूप में हर रोज़ देखते होंगे। शायद इसके शिकार होते होंगे या इसका इस्तेमाल करते होंगे। हाँ, मुझे पता है। मन ही मन इस बात को नकार भी रहे होंगे की ये क्या कह रही है, प्रतियोगिता तो अच्छी चीज़ होती है, इस तरह आदमी आगे बढ़ने की कोशिश करता है। एक स्वस्थ स्पर्धा किसी का नुकसान नहीं पहुँचती वगैरह वगैरह।  पर लोग यहाँ भूल जाते है की भाई ! हम हैं इंसान और वो भी कलयुग के। यहाँ मैं शर्तिया कह सकती हूँ की यह स्वस्थ स्पर्धा अगर है भी तो बहुत ही कम प्रतिशत में है। स्कूल, कॉलेज और कार्यालयों में आप इसे हर रोज़ देखते होंगे । यहाँ एक और शब्द पर गौर किया जा सकता है “सहकार”। शायद हमारे पूर्वज सहकार शब्द का मतलब नहीं जानते थे या सहकार भी हो सकता है इसे झुठलाते थे इसलिए उन्होने स्वस्थ स्पर्धा शब्द का ईज़ाद किया होगा। देखेंगे तो पाएंगे की स्वस्थ स्पर्धा जहां आई वहाँ सहकार नहीं रह जाता और कुछ दिनों बाद वो अस्वस्थ स्पर्धा का रूप ले लेती है।  इसे झुठलाना बहुत आसान है पर यह तो रहने ही वाला है।
चलिए मेरा व्यक्तिगत उदाहरण ही बताती हूँ। मेरे कॉलेज में यह बात आम थी की फायदा उठाओ और जब सामने वाले को काम आए तो उसे मदत न करो। ज़्यादा यही कोशिश करो की उसे दूसरी जगह से भी सहयता न मिले। इसे समझने में मुझे काफ़ी देर लगी। इस तरीके से मुझे एक प्रकार से लड़ना ही पड़ा, क्योंकि मैं इसे अपनाना नहीं चाहती थी। इसका विकल्प ढूढ़ती रही। और ये नीति कैसे खत्म हो, कम से कम मेरे क्लास में ही इसका प्रयत्न ही किया। पर अंत में निकला यह की ऐसे लोगों से दूर रहने में ही भलाई है। इतना संपर्क में ही रहना ठीक है जिसमें मुझे कोई नुकसान न हो। मेरी योजना तो ठंडे बस्ते में धरी की धरी ही रह गई। एक पारंपरिक स्कूली शिक्षा नहीं मिलने के कारण मेरे मन में प्रतिस्पर्धा की भावना तिल भर भी नहीं थी। हाँ, मैं ये भी नहीं कहती की जो स्कूल जाते हैं वो शैतान का रूप होते हैं। पर उनमें कम प्रतिशत ही देखेंगे आप। और दूसरे को नीचा दिखने की भावना न भी हो तो ईर्षा तो पनपती ही है, और खुद को ही जलती है। बेचारे बच्चे यह समझ भी नहीं पाते होंगे की उनमें इस कुंठित भावना ने जन्म कब और कहाँ ले लिया।
मुझे यह भी पता है की कुछ लोग ये सोच रहे होंगे की ये लड़की क्या अंट शंट लिख रही है। उनमें तो यह सारी बातें नहीं हैं। खैर, ये तो वो खुद ही हैं, जिन्हें यह जानना है।
                                                                        जयप्रकाश

तो अगर यह गलत है। तो इसे बदलने का कोई उपाय है क्या ? क्या हो सकता है यह उपाय ? क्या संभव है की संघर्षवाहिनी के युवाओं का वो प्रचलित शब्द “उखाड़वाद” किसी तरह से बदला जा सके ? आज हम यह नीति अपने ही भाई बंधुओ के साथ अपना रहे हैं। हम भूल रहे हैं की यह नीति जयप्रकाश की नहीं थी। क्या हमेशा इस कहावत को याद दिलाना ज़रूरी है की “ An eye for an eye makes the whole world blind .        

Sunday 5 June 2011

इस मौसम की पहली बारिश :-

इस मौसम की पहली बारिश

आज दोपहर अचानक (2 बजे) मैंने देखा , न जाने कहाँ से काले घनघोर बादल आसमान में धीरे धीरे मेरी ही तरफ आ रहे थे। हवा ज़ोरों से बहने लगी और पांचवें मंज़िल से मैं साफ साफ देख सकती थी की ज़मीन पर रहने वाली धूल , जो सबों के पैरों तले रोंदी जाती है, जैसे मुझसे मुस्कुराते हुए कह रही हो, " देखो ! मेरे ऊंचाई की और घनत्व की तो कोई सीमा ही नहीं । मेरा दोस्त तूफान तुम सबों के घरों मे मुझे ले जाएगा , इसलिए बेहतर है , की तुम अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर लो "।
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मिनट भी नहीं बीता होगा की दोपहर के 2 बजे  मुझे बिजली जलाने की ज़रूरत महसूस हुई , और मैंने कमरे के बल्ब का बटन दबा दिया। दूसरे कमरे से पापा की आवाज़ आई "टीना , कल्पना देखो लगता है बारिश का मौसम शुरू हो गया "। मैंने सोचा "2 जून ! " थोड़ा अजीब लगा । बचपन में जब हम बारिश का इंतज़ार करते तो बारिश जुलाई के महीने में आती।
धीरे धीरे बारिश की बूंदें टपकना शुरू हुई। अब तक वो छोटी छोटी प्यारी लग रही थी। मैं खिड़की से अपना हाथ बाहर निकाले उन्हे  महसूस कर रही थी। उनकी ठंडक मुझे बहुत अच्छी लगती और साथ  ही जब धरती की सौंधी सौंधी महक आई, तो फिर क्या कहना। थोड़ी देर, मैं इन्हीं छोटी बूंदों का मज़ा ले रही थी कि अचानक पता नहीं कहा से एक बड़ी और मोटी बूंद ने ज़ोर से मेरी हथेली कि कानी  उंगली पर अपना वार किया, जैसे कह रही हो "अपना हाथ अंदर ले अब मैं आ  रही हूँ  "। मैंने उसकी बात मानते हुये अपना हाथ अंदर खींच लिया पर खिड़की बंद करने को मन  नहीं माना। यह दृष्य मैं ठीक दो साल बाद देख रही थी। उन बड़ी बूंदों ने धीरे धीरे घनघोर बारिश का रूप ले लिया। दूर कि पहाड़ी जो मैं अपने पंचवे मंज़िल के कमरे से देखती थी वो अब मुझे धुंदली दिखाई दे रही थी। बारिश कि लहरें आकाश में कभी दायें से बाएँ और कभी बाएँ से दायें जैसे नाच सी रही थीं। जैसे कह रही हो " मुझे तो बड़ा मज़ा आ रहा है। तुम भी आओ "।
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपना चेहरा खिड़की के पास लाया और हल्की बारिश कि बूंदों ने मेरे चेहरे को छूआ जैसे मेरे साथ बतियाना (बात करना) चाह रही हो, कह रही हो "पिछली बार जब तुम यहाँ थी, मेरा मज़ा नहीं ले पाई थी , बीमार थी , और सारा समय अस्पताल के कमरे मे ही बिताया था तुमने । पर इस बार देखो मैं पहले आई हूँ , ताकि जाने से पहले तुम मुझे देख लो"।

मैं बारिश कि बूंदों का मज़ा ले ही रही थी कि पापा ने चाय पीने की इच्छा ज़हीर कि । देखा तो चीनी और चाय दोनों नदारद थे। नीचे जाना था , किराने कि दुकान से चीनी व चाय लानी थी। मैंने पैसे, और ,सौभाग्य से अपना मोबाइल भी ले लिया और लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट आई और मैं उसमें नीचे जाने के लिए g का बटन भी दबाया, और कुछ सोचते हुये नीचे जाने लगी , कि तभी अचानक "अरे ये क्या!  बिजली गुल " । मैं शायद दूसरे और तीसरे मंज़िल के ठीक बीचों बीच अटकी हुई थी। देखा अब क्या करूँ बारिश आने के कारण बिजली कट  गई थी और मैं मेरे सिर से पैर तक बड़ी अजीब जगह खड़ी थी। लिफ्ट  को देखा तो उस अंधेरे में मुझे ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं दिया, सिवाय एक कोने में पान की पीकों का  गुच्छा मुझे चेतावनी देते हुये दिखा " देखो इस तरफ मत टेकना, यहाँ मैं हूँ"। वैसे ये लिफ्ट तो कहीं से भी  टिकने के काबिल नहीं थी। बस, इस लिफ्ट का बीच का केंद्र बिन्दु ढूंढो और वहीं सावधान कि मुद्रा लिए खड़े रहो।

अचानक याद आया " अरे! मेरे पास तो मोबाइल फोन है"। फिर क्या था झट से पापा को फोन किया और बताया कि मैं बीच में अटक गई हूँ। पापा ने बस इतना भर पूछा "डर तो नहीं लग रहा न " मैंने नहीं कहा  और कहा "थोड़ी देर में बिजली तो आ ही जाएगी", और मोबाइल रख दिया। फिर सोचा दूसरे दोस्तों को फोन करूँ। और इत्तेफाक ऐसा कि दीदी से ले कर शिल्पी और 2-3 दोस्तों में से किसी का फोन नहीं लगा देखा ," लै!  मोबाइल में तो टावर ही नहीं है "। सोच रही थी कि टावर  कैसे आए कि बाहर कि बिजली कि आवाज़ ने मेरा ध्यान बाहर हो रही बारिश पर  आकर्षित किया, मेरे सोचने कि क्षृंखला झट से मेरे बचपन में चली गई। याद आया कि आशियाने में (मेरे गाँव का घर) जब भी बारिश का मौसम आता तो हम सब बारिश में दरवाजे पर बैठे (दरवाज़ा, गाँव में बैठक की जगह को कहते है, जो अक्सर घर के बाहर होता है) हम चाय पीते। मम्मी तरह तरह के गरमागरम व्यंजन बना लाती और हम बड़े मज़े से बारिश का और प्रकृति मज़ा लेते हुये खाते रहते। सामने का दृश्य तो बड़ी कठिनाई से दिखाई देता। सामने कि पूरी जगह देखते ही देखते  कुछ ही देर में पानी से भर जाता, और मैं और दीदी उस बारिश में खूब खेलते। अक्सर कोई नारियल का पेड़ , जो हमारे दरवाजे पर  चारों तरफ लगे हैं कोई न कोई नारियल का पत्ता गिरा देता। पापा उसे ले आते और मुझे  और दीदी को उसपर बैठने को कहते। नारियल का पत्ता चौड़ाई में और लंबाई में काफ़ी बड़ा होता है, और कम से कम दो छोटे बच्चे, छह और तेरह साल के, आराम से उसपर बैठ सकते हैं। हम उसपर बड़े मज़े से बैठते और पापा उसे नाव कि तरह पानी में खींचते। पूरी जगह में चार चार इंच पानी भरे होने के कारण हमारी नाव आराम से आगे बढ़ती और उसके साथ हम नाविक भी। हमें बड़ा मज़ा आता, लगता नाव कि सैर कर रहे हैं, सिर्फ खेवैया पापा हैं।

बारिश खत्म होने पर हम कागज़ कि नाव बनाते और उसे पानी में छोड़ते उसपर कभी कोई चींटी या कभी कोई कीड़ा रख देते, और नाव का नाम भी रखते। जैसे वो नाव बड़ी लंबी  समुद्री यात्रा पर जा रही हो, और कोई खज़ाना वजना है जिसकी खोज करनी है। 
    एक बार तो एक नाव का नाम दीदी ने यूनिकॉर्न ही रख दिया था। यूनिकॉर्न टिनटिन कॉमिक्स के एक अंक में आता है। जिसमे टिनटिन , कैप्टन और उनके कुछ साथी खजाने कि खोज में समुद्री यात्रा पर जाते हैं। एक बार तो मैंने एक छोटा सा मेंढक , जो करीब मेरी उंगली के चौथाई भाग जितना बड़ा ही होगा, उसे पकड़ा और सबकी नज़रों से छुपा कर उसे नाव  पर रख दिया। बेचारा, सोचता होगा, "पता नहीं ये कहा से आ गई है और मुझे इस अजीब सी  चीज़ पर रख दिया है"। मुझे याद है, वो मेंढक थोड़ा चिपचिपा सा था पर ये देखने की उत्सुकता में की वो उस नाव पर कैसा लगेगा , मैंने उस मेंढक को पकड़ ही लिया था। ऐसी धुंदली सी याद है मुझे। इन सब चीजों में मुझे बड़ा मज़ा आता। मेंढक पकड़ना, पिल्लू छूना इत्यादि। और दीदी को उतना ही गंदा लगता। इसलिए मैंने ये काम दीदी से छुपा के किया था। डर था , दीदी ने देख लिया तो डांट तो पड़ेगी ही शायद चपत भी लगे। ये सोचने की श्रुंखला थोड़ी और आगे बढ़ी और मुझे याद आया की काफ़ी सालों बाद एक बार ऐसा आया की संयोग से मैं और दीदी फिर से बारिश के मौसम में रोसड़ा में ही थे और खूब ज़ोरों की बारिश हो रही थी। फिर उसी नारियल के एक पेड़ ने अपना एक बड़ा पत्ता गिराया जैसे कह रहा हो " लो, बहुत दिनों बाद मेरी सवारी का फिर से मज़ा लो"। पर हम अब उतने छोटे नहीं थे की दोनों  उस पत्ते पर बैठ सकें। दीदी ने मुझे as usual  बच्चा मानते हुये कहा की तुम बैठो और  मैं खींचती हूँ। और मैं , सच मे बैठ भी गई। दीदी ने जैसे तैसे थोड़ी दूर खींचा और फिर मेरी बारी आई। दीदी बैठी और मैंने भी बड़ी मेहनत से नाव थोड़ी आगे बढ़ाई। मैंने दीदी  की तरफ देखा तो उसके चेहरे पर जैसे लिखा था "मेरी छोटी और प्यारी बहना, अब शायद हम इतने बच्चे नहीं रहे  कि इसपर बैठ सके और दूसरा कोई इस नाव को खे सके"। हम फिर भी उस बारिश मे हम खूब खेले थे नाव बनाई, और ज़ोरों की बारिश होने के बावजूद एक दूसरे पर पानी भी उड़ाया। आँगन में चौकी  पर खड़े हो कर और गीले हो जाने कि कोशिश की । मम्मी को बुलाया ,पर वो कहाँ आने वाली थीं। बाहर देखा तो कुछ गाँव की लड़कियां खड़ी हमें दूर के ट्रेनिंग हॉल से देख रही थी और हंस रही थीं। जैसे वो भी हममे शामिल होना चाहती हों। उस दिन आशियाने में लड़कियों का कोई शिविर था । हम उन्हे भी खींच कर बाहर लाये। मुझे याद है हम बारिश के रुकने पर ही वापस आए थे।

इन यादों के बीच अचानक मेरा ध्यान टूटा और मैंने देखा की बिजली आ गई है और मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ जा रही हूँ। मेरा खयाल वहीं रुक गया। पता नहीं मैं कितनी देर वैसे ही सावधान की मुद्रा में खड़ी  अपने पिछले दिनों को टटोल रही थी। इस मौसम की पहली बारिश ने मुझे पता नहीं कहाँ कहाँ की सैर कराई। मैं सोचते हुये की पता नहीं आशियाने की वो बारिश अब कब नसीब होगी लिफ्ट का दरवाज़ा खोला और किराने की दुकान की तरफ अपना कदम बड़ाया।

आज तीन जून को जब मैं लिखने बैठी हूँ। आज फिर तूफान ज़ोरों की बारिश लिए आया है। अब जब मेरे लिखने का अंत है, हल्की बारिश अब भी हो रही है , शाम का समय है और सूरज बस डूबने ही वाला है। दूर कहीं कुछ मेंढक मस्ती में टर्रा रहे हैं , और खूब खुश हो रहे है। कुछ पक्षियों के चहचहाने की  भी आवाज़ आ रही है, शायद  मेरी खिड़की  के पास ही बैठी है। वो भी खुशी से इस मौसम की  पहली बारिश का स्वागत कर रहे हैं।




                                                              मेरा आशियाना