Wednesday 2 November 2011

SP – 26, सारपास है ख़्वाहिश

करीब चार साल हो गए जब मैं trekking पर गई थी। दीदी के साथ पहली बार जा रही थी। यूथ हॉस्टल असोसिएशन ऑफ इंडिया एक ऐसा organization है जो बड़े उम्दा किस्म के treks निकालता है और यह वाला जिसमें हम जा रहे थे वो उनमे से एक था। हमे कुल्लू से होते हुये कसौल जाना था। रात भर के बस के सफर के बाद जिसमें कई बाद नींद टूटती है। हम हैरान परेशान कुल्लू के बस स्टैंड पर उतरे ।
“कसौल”! कसौल एक ऐसी जगह है जहां आपको अलग अलग देशों के इंसान नशे में झूमते हुये नज़र आएंगे ज़्यादातर जर्मनी और फ्रांस के। शिवा मामा, शिवा बाबा और न जाने इसी प्रकार के कितने ही “spiritual feeling” देने वाले अजीबोगरीब नाम के cafes आपको जहां तहां दिखाई देंगे जिनके अंदर आप बाहर से साफ साफ दम मारो दम के दृश्य देख सकते हैं। मेरे लिए यह बड़े ही चोंकाने वाले दृश्य थे। पर इन सबों से विपरीत YHAI का base camp शांत और सोम्य प्रतीत होता है।



पहले दिन पहुँचने पर आप बहुत कुछ देखते हैं, नए लोगों से मिलते हैं। देश भर के लोग वहाँ आते है। बंगलोरे, चेन्नई, गुजरात, महाराष्ट्र और न जाने कहाँ कहाँ के। इस कैंप की खास बात होती है कि आप बहुत से लोगों से मिलते हैं, दोस्त बनाते है, ऐसे दोस्त जो आपके साथ अगले 9 दिनो तक आपके उस अनोखे और साहसिक यात्रा के भागीदारी होते हैं।
सारपास करीब 14500 फीट की ऊंचाई पर है। ठंड के समय वहाँ जाना लगभग नामुमकिन है। हम गरमी में गए इसलिए गनीमत थी। सारपास लेक तक जाने में करीब 4 दिन लगते हैं। आप बस अपने पीठ पर अपना sack उठाए चलते जाते हैं और बस चलते ही जाते हैं।
हमारे समूह 40 लोगों का था। देश के अलग अलग भागों से, एक दूसरे से बातें करते जान पहचान बढाते कब पहला दिन बीता पता ही नहीं चला। हमारा 40 का group जैसे अली बाबा और चालिस चोर की कहानी जैसा था।
पहले दिन हमने बड़ा मज़ा किया। एक दूसरे से परिचय बढ़ाने के अलावा हमने rock climbing और rappelling भी की। हर व्यक्ति के उसके खासियत के अनुसार उसका nick name भी रखा जैसे deadly, marcky, बुलबुल इत्यादि। बड़े मज़े से हम कसौल घूमने गए और बड़े ही विचित्र नज़ारे देखे। वहाँ के जर्मन बेकरी से cake भी खाया।
तीसरे दिन हम बड़े जोश खरोश से अपने destiny की तरफ चल पड़े। इस उत्साह और थोड़े से डर के साथ की आगे क्या होने वाला है। मैंने दीदी से जिन्होने कई बार इतने लंबे और कठिन trek किए हैं, से सारपास के बारे में बहुत कुछ सुना था। सारपास सबसे खतरनाक trekking में से है ऐसा सुना था।
अगले दिन बस की छत पर चढ़ सैर करने में हमे बड़ा मज़ा आया। एक तरफ लंबा चौड़ा पहाड़ और दूसरी तरफ गहरी लंबी खाई। हमारे साथ उस बस के अलावा वहाँ की नदी भी साथ यात्रा करती दिख रही थी। जहां जहां सड़क मुड़ती नदी हमारे साथ हो लेती। कहती “चलो थोड़ी दूर तुम्हारा साथ देती हूँ”। बड़ा ही रोमांचक नज़ारा था। जैसे पहाड़ का पत्थर हमारे पास आता हम ज़ोर से अलग अलग आवाज़ निकाल एक दूसरे को चेताते। की भाई देखान सैर का मज़ा लेते हुये अपना सर ही मत तुड़वा लेना। नारे लगते, हो हल्ला करते और बस की छत की सैर का मज़ा ले रहे थे। एक जनाब ने अजीब सा नारा बनाया जिसे उतनी ही बुरी तरह नकार भी दिया गया। नारा था “रिम झिम – 26 सारपास है जाना”। अंत में बहुत से common नारों के साथ हमारा slogan था “ SP – 26 सारपास है ख़्वाहिश ”।
वैसे तो ये पूरा ट्रेक बड़ा खास था पर तीन घटनाएँ जो मुझे बेहद खास हैं और जिन्हे मैं भूल नहीं सकती यहाँ लिखती हूँ।
पहले ही दिन की बात है। हमने एक पहाड़ी के नीचे से अपनी Arabian nights की यात्रा शुरू की। नज़ारा देखने ही लायक था पर हमारा गाइड बिना इधर उधर देखे तेज़ी से मंज़िल की ओर बढ़ रहा था।, तो किसी भी जगह हम ज़्यादा देर तक रुक नज़ारों को निहार नहीं सकते थे। हमें आगे जाना ही पड़ता। शाम से पहले ही हम पहले camp पर पहुँच गए। हमारे साथ एक जनाब थे जो एक लंबा और बड़ा bag लिए हमारे साथ आए थे। रात हुई, camp fire के बाद वो बैग खुला तो उस अंधेरी रात में भी हमें आग की हल्की रौशनी में दिखा “अरे ये तो telescope है ” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। अब तो बड़ा मज़ा आयेगा मैंने सोचा। उसने वो telescope fix किया। उस रात हमने न जाने कितने ही प्रकार के तारे और गृह बड़े पास से देखे। उसने व्यक्ति ने आसमान के सारे तारे हमारी झोली में जैसे डाल दिये हों और कहे की देखो कितने प्रकार और खूबियों के हैं ये। अलग अलग आकार के टिमटिमाते तारे बड़े ही धीर और गंभीर प्रतीत हो रहे थे उस दूरबीन से। खाली आंखो से आसमान को देखो, तो सारा आकाश जैसे तारों से टिमटिमाती हुई अलादीन की कहानी कि वो काली रात लग रही थी। मैंने सोचा यह नज़ारा तो मैंने अपने गाँव के प्रदूषण रहित घर से भी नहीं देखा है। चारों तरफ आकाश में तारे जैसे गजगजाए हुये थे। ऐसा लग रहा था जैसे ब्रह्माण्ड के सारे तारे उस आकाश में जहां तक हमारी नज़र जा रही थी, में सिमटना चाह हरे हों। उस रात हम बड़े देर से सोये। तारों के नीचे लेटे ठंड में ठिठुरते हुये आखिरकार हम अपने अपने tent में sleeping bags में धंस गए।
यहाँ चौथे दिन की बात बताती हूँ। करीब 10 की॰ मी॰ चले होंगे हम उस दिन। जैसे ही सारे दिन की सैर कर हम अपने camp पहुंचे। खाना खाया और बुरी तरह थके होने के कारण हम पहले की अपेक्षा जल्दी ही सो गए। आधी रात मुझे सपना आया (मुझे अच्छे से याद है) सपने में मेरा और दीदी का pet “तूफान” मेरा माथा अपनी ठंडी जीभ से चाट रहा था। फिर अचानक ऐसा लगा जैसे कोई छोटा सा पैर मेरे सर पर अपना पैर रख बड़े मज़े में उधम चौकड़ी मचा रहा हो। जब दूसरी बार ऐसा ही हुआ तो मेरी चीख निकाल गई। “आआआ” अपनी आधी नींद में





मैं ज़ोरों से चिल्लाई। मेरी बगल में सोई दीदी और बाकी के लोग भी उठ गए। उस छोटे से tent में हड़कंप मच गया। दीदी ने गुस्से में पूछा “क्या हुआ” मैंने कहा “पता नहीं, कुछ है जो मेरे सर पर अपना पैर रख रहा है”। टॉर्च जलाया तो देखा जनाब चूहे मेरे ही बैग पर बैठे मेरी ही टिफ़िन में पता नहीं क्या खोजते हुये मेरी तरफ चोंक कर देखने लगे। जनाब की आँखों में तो नहीं पर मेरी आँखों में उसने ज़रूर डर को देख लिया होगा। वे फुदकते फुदकते अपनी राह मस्तमौला चाल से नीचे उतरे और चल दिये। दीदी ने बड़े आराम से दुबारा सोते हुये कहा “ओह चूहा है, ज़रूर तुम्हारे टिफ़िन को देखने आया होगा”। मैंने सोचा “मेरे ही क्यों, किसी और के टिफ़िन में मुह मारे कमबख़्त ”। एक दूसरी लड़की ने आधी नींद में कहा “ सो जाओ, अपना सर sleeping bag के अंदर रख लेना”। हुंह, जैसे मेरा दम न घुट जाए उसमें। सोचते हुये मेरी पूरी रात वैसे ही टॉर्च जलाए बीती। रात भर जागी होने के कारण मैं सुबह जल्दी उठ गई। बाहर आई तो देखा कुछ दूर वहाँ के स्थानीय निवासी एक छोटी सी झोपड़ी बनाए आग ताप रहे थे। उनके पास मैं गई और बैठ गई। मैंने उनकी तरफ मुस्कुरा कर देखा और उन्होने मेरी तरफ। उन्होने चाय बनाई। इतनी मीठी की चीनी को भी मात दे जाए पर मैंने किसी तरह पी ही ली। उनसे बात करते मैंने उन्हे बड़ी ही उत्सुकता सेरात की घटना बताई। एक महिला जो वहीं बैठी चाय बना रही थी कहा “सोच कर चलिये की गणेश जी के चूहे आए थे आशीर्वाद ले कर, और आपके सर पर अपना आशीर्वाद दे कर चले गए”। मैं आवक उन्हे देखती रही। मेरी जान निकाल गई थी (या वैसा ही कुछ) और उन्हे आशीर्वाद सूझ रही है।
जैसे ही मैं चाय पी कर उठी उनमें से एक बूढ़े ने बड़े प्यार से आशीर्वाद देते हुये मुझे पाँच रु॰ दिये कहा मेरे पास बस यही देने को है आप आई और हमारे पास आ कर बैठी, अच्छा लगा।
मैंने न न कहते हुये उस पाँच के नोट को ले लिया। वह नोट अभी भी मेरे पास रखा है। मेरे पर्स में रखा जब भी मैं उसे खोलती हूँ एक नज़र उठा कर देख लेता है।
तीसरी और आखिरी घटना मुझे ही नहीं मेरे सभी साथियों की जान निकालने वाली है।
आठवें दिन हम सारपास lake के लिए निकले। यहाँ से इस जगह से बर्फ शुरू हो जाती है गनीमत थी, हम गर्मियों के मौसम में वहाँ पहुंचे । हमने चढ़ना शुरू किया आसमान साफ, सूरज की ताज़ा गरमा गरम किरणे सुबह की ठंड में बड़ी प्यारी लग रही थी। हम बड़े जोश के साथ आगे बढ़ रहे थे। जब बर्फ शुरू हुई हमने बड़ी मस्ती की। बर्फ के गोलों का युद्ध देखने लायक था। थोड़ी ही देर हुई थी की एक guide आया और जल्दी चलते को कहने लगा। हमें समझ नहीं आया पर हामी भर हम भी साथ हो लिए अब बर्फ के गोलों के कारण हमारे दस्तानों में भी नमी आने लगी थी।
आगे बढ़े तो बर्फ से ढका सपाट मैदान सामने। मैंने सोचा “हमें इसपर जाना है , इसका तो कहीं अंत ही नहीं दिखता ” मन में अचानक एक हल्का सा डर पनपा। पर मन को समझा मैं आगे बढ़ी। मेरे सामने 1 – 2 लोग ही थे।थोड़ा आगे चले तो एक संकरी बर्फ ही की पगडंडी दिखाई दी। एक तरफ बर्फ ही का पहाड़ और दूसरी ओर बर्फ ही की खाई।  पीछे देखना मुमकिन नहीं दिख रहा था। उस सँकरे रास्ते पर पीछे मुड़ना मतलब मेहनत का काम जान पड़ता था। उस ढलान पर हमें एक guide ने surfing भी कर दिखाई फर्क सिर्फ इतना था की surfing boat नदारद थी। हमें एक जगह ज़्यादा देर पैर रखने से मना किया गया था इस कारण लगातार चलना पड़ रहा था। जल्दी चलने को कह वो अपनी चाल आगे बढ़ गया। पाँच मिनट भी नहीं हुये थे की आकाश में जिन्न की तरह मुह बाए हमारी तरफ काला घना बादल आता दिखाई दिया।  मेरे साथ 7 – 8 लोगों का ग्रुप आगे बढ़ रहा था। बाकी के लोग पीछे छूटे हुये थे। ठंड के मारे पहले ही हम जमें जा रहे थे, अब तो चेहरा भी जमने लगा था। तभी पीछे से आवाज़ आई । सुन हम चौंक पड़े पीछे मुड कर देखने लगे। “आआआ ई ई ई ई” Spidy (सागर) बर्फ की ढलान पर तेज़ी से गिरता दिखा। करीब तीस फीट दूर ही एक खाई देख हमारी आवाज़ अटक गई। डर से हम बस देखते ही रह गए उसे खाई की तरफ गिरते हुये।  गनीमत थी की एक गाइड super hero  की तरह कूदता फाँदता वहाँ गया और उसे कोलार से पकड़ खींच लिया। सागर के माँ पिता की तो पता नहीं क्या हालत थी। वो बस देखते ही रहे। पाँच मिनट ही बीता होगा की एक और आवाज़ आई आ आ आ इस बार कोई और था हमने देखने की ज़हमत नहीं उठाई बस आगे बढ़ते गए। बाद में पता चला 2 – 3 और लोगों ने sliding का मज़ा चखा था। खैर ये उन guides के लिए रोज़ का काम था।
हम आगे बढ़े और चलते ही चले गए। रास्ता जैसे खतम ही नहीं हो रहा था। आगे देखो तो रूई सा सफ़ेद बर्फ दिखता और हर एक कदम के साथ डर रहता। थोड़ी देर में देखा जो हमारे साथ के गाइड थे वो भी नदारद। अपनी नज़रे इधर उधर कर हमारे super hero को ढूंदते हुये अचानक सामने देखा तो एक घुमाव के बाद दूसरी तरफ का रास्ता बंद , सोचा “ये कैसे हो गया, ये संभव नहीं कुछ गड़बड़ है” लगभग दस फीट की एक steep चढ़ाई और उसपर से एक ओर खाई। न जाने वह देख मैं शांत हो गई मन शून्य, खाली,  बस मैं देखती रही। मन में एक डर आया “अब कुछ नहीं हो सकता, मैं ये नहीं कर सकती, अगर मैंने कोशिश की तो मैं ज़िंदा नहीं बचूँगी, खाई में गिर पड़ूँगी । पता नहीं कमबख्त इस super hero को भी अभी ही गायब होना था”। मेरे पीछे के लड़के एकदम शांत हो बस देखते रहे किसी के बोलने की न हिम्मत हुई और न ताकत ही बची थी। नज़रों से तलाशा ऊपर चढ़ने के लिए न कोई टहनी, न कोई पत्थर ही दिखाई दिया जिसे पकड़ मैं ऊपर चढ़ सकूँ। मन शांत होने के साथ हवा और तेज़ हो गई जैसे चेता रही हो “तिना ऊपर न चढ़ना ”। पर वहाँ रुकना संभव न था हमारे पैरों के नीचे की बर्फ पिघलती जा रही थी और अभी भी हमारे गाइड वहाँ से गायब थे। ऊपर चढ़ना ही था नहीं तो वैसे भी हम एक एक कर गिरते , पीछे से आवाज़ आई टीना कोशिश करो हो जाएगा।
मैंने अपनी हिम्मत समेटी और यह सोच जो होगा देखा जाएगा बिना खाई की तफ़र देखे बर्फ ही को पकड़ ऊपर की तरफ खुद को धकेला, और यह क्या अगले ही क्षण मैं ऊपर थी येयेपीपी मेरी खुशी का ठिकाना न था। पहली बार मैंने अपनी हिम्मत की परीक्षा ली थी। पहली बार मुझे पता चला था की मैं खुद को कहाँ तक ले जा सकती हूँ। शायद ज़िंदगी की ऐसी ही घटनाओं से आप खुद को परखते है, खुद की अनगिनत बातों को खोज निकालते हैं जो शायद खुद को ही पता नहीं रहती। 

           

Sunday 17 July 2011

आज की ताज़ा ख़बर

आज शाम एक अजीब घटना घटी। मम्मी के कहने पर मैं बाज़ार के लिए तैयार हुई, थैला उठाया, लिस्ट बनाई की कौन सी चीज़ें लेनी हैं मुझे। सब्जी, सरसों तेल, और खोबर (सूखा नारियल)। लिस्ट बना कर और ज़रूरत के हिसाब से पैसे ले कर मैं निकली। पटना की पसीने वाली गर्मी और ऊपर से जहां तहां बिखरी हुई गंदगी के कारण वैसे ही दिमाग में खलल रहता है। अब तक तो सब ठीक चल रहा था मैंने केले वाले से केले का दाम पूछा हाजीपुर के केले छोटे होते है पर बड़े मीठे होते है। 16 रुपये सुन मैं चौंक गई “इतने से केलों का दाम 16 रुपये? यह तो नाइंसाफी है भाई।
किसी तरह बड़ी मुस्तैदी के साथ अपने कदम बढ़ाते हुये मैं आगे बढ़ाने लगी। पता नहीं कहाँ किस चीज़ के ऊपर पैर पड़ जाए। जगह जगह सब्जी वाले खड़े थे, और खरीददार खरीदी कर रहे थे। एक जगह मैं अच्छी सब्जियाँ देख रुक गई। सब का दाम पूछा “भिंडी कितने की है भैया , धनिया पत्ता कैसे दिये हैं आधा किलों परवल दे दीजिये ” इत्यादि। उस भीड़ भरी दुकान पर मैंने किसी तरह सब्जी तौलने को दी और मन ही मन हिसाब कर लिया। “50 रुपये हो रहे हैं ” सोच, मैंने सब्जी ली और पैसे दे कर मुड़ गई। मुझे किराने की दुकान भी जाना था। वहाँ पहुंची हि थी की एकाएक पीछे से किसी ने अचानक बड़ी रुक्षता से कहा “परवल का पइसा नहीं दीं है आप, परवल का पाइसा नहीं देंगी का ” मैं पीछे मुड़ी तो देखा उसी सब्जी वाले दुकान का एक लड़का मेरे पीछे खड़ा मेरी तरफ शक की निगाहों से देखते हुये बोल रहा था। मैंने शांति से कहा “दे तो दिये हैं, वहीं हिसाब किए थे ना ” । “ऊ सब हम नहीं जानते हैं दुकान वाला कर रहा है की आप पइसा कम दीं हैं सो हमको पइसा दीजिये हम जाते हैं” उसकी आवाज़ में बेशर्मी देख मुझे गुस्सा आया । मैंने कहा “रुको हम चलते हैं, यहाँ खरीद लें”। पर वो तैयार ही नहीं था। मुझे अपना काम जबरन छोड़ उसके साथ जाना पड़ा। वहाँ जाते ही मैंने पूछा “क्या हुआ, उस समय कितना पैसा दिये हैं हम, आपको याद नहीं है ”? मैंने उस लड़के से जिसकी उम्र कुछ 17 18 साल रही होगी पूछा। उसने कहा आपने पूरा पैसा नहीं दिया है । अचानक देखा उधर से एक उम्र में बड़ा आदमी ज़ोर से बोलने लगा "कितना हुआ है , आपको हिसाब नहीं आता है क्या"। उसकी आँखों में और आवाज़ में बेखौफ बेशर्मी देख मुझे गुस्सा आया । तीनों दुकानदार जैसे मेरे ऊपर बरस पड़े। उसे लग रहा था की मैं लड़की हूँ इसलिए कुछ बोलुंगी नहीं और उन्हे चुपचाप पैसे दे दूँगी। पर मैंने अपनी आवाज़ चढ़ाई और पूरे बिहारी tone में कहना शुरू किया “नौटंकी बंद कीजिये आप, कुछ बोले नहीं हैं इसलिए बकवास करेंगे आप”( यहाँ झगड़ते समय भी "आप" शब्द का प्रयोग अनिवार्य है, कम से कम इसी कारण झगड़ते समय शब्दों में थोड़ी शिष्टता दिखती है )। “हिसाब करना हमको नहीं, आपको नहीं आता है, कितना दिये है तौल लीजिये” उसकी तरफ उससे ली हुई सब्जियाँ लगभग फेंकते हुये मैंने कहा। उसे हिसाब कर सुनाया, तबतक दूसरा खरीददार भी मेरे पक्ष में बोलने लगा। वो आदमी अब भी मेरी तरफ घूरे जा रहा था पर अब उसके पास कोई बात नहीं बची थी बोलने को और मैंने उसे अच्छा खासा सुना भी दिया था। मुझे लगा की मेरे ऊपर कहीं ये इल्ज़ाम न लगा दें इसलिए मैं ज़ोर से बोल रही थी। मुझे अगल बगल के लोग भी देखने लगे। वहाँ खड़ी औरतें मुझे आखेँ फाड़ फाड़ के देखे जा रही थीं और वो दुकान वाला भी। उनका मुह बंद हो गया, मैंने अपना सामान उठाया और वहाँ से चल पड़ी।
महसूस किया की मेरे लड़की होने का मतलब वह ये निकाल रहे थे की ये तो कुछ बोलेगी नहीं। इसे कैसे भी दमसा लो ये अपना सर नीचे किए सुन लेगी। मुझे बुरा लगा और लगा की मैंने अच्छा ही किया जो उनसे ज़ोर से डाँटा। उन्हे दिखाना चाहती थी की लड़की से कैसे भी बात कर लोगे तो चल जाएगा ऐसा नहीं है। ऐसा क्यों है, की ऐसी घटना जो हो सकता है की पाठकों को बहुत ही साधारण लगे आज भी होती हैं। उस दुकानदार का यह सोचना की मैं लड़की हूँ इसलिए ज़ोर से आँखें निकाल कर बोल देगा तो मैं चुप हो सुनती रहूँगी क्या यह नहीं दर्शाता की इस समाज में लड़कियों को अगर छोटे से छोटा काम भी करना है तो किसी पुरुष का हाथ थामने की ज़रूरत महसूस कराई जाती है। यह मैं कहीं और तो नहीं देखती। फिर ये यहीं क्यों। यह चिंताजनक बात है।
मैंने देखा मेरे दोनों कान गरम हो गए और उनसे गरमी निकलने लगी। यह देख मुझे हंसी आ गई । बड़ी ही अजीब अवस्था थी हंसी के साथ गुस्से का मिश्रण था। ज़्यादातर मैं जब गुस्साती हूँ तो उस इंसान पर बहुत गुस्साती हूँ, पर बाद में, वो भी अपने दिमाग में, मन ही मन।
मैंने अपनी दूसरी खरीददारियाँ की और पापा को यह घटना सुनाने, किसी तरह अपनी हंसी दबाये, मैंने घर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये।

Saturday 16 July 2011

छुक छुक गाड़ी

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि” ये जुमला इन्सानों पर एकदम सही बैठता है। और बेचारे जानवरों को उसका फल हमारे साथ ही भुगतना पड़ता है। हमारी करनी का फल उन्हें भी भोगना पड़ रहा है। मेरे खयाल से इस बुद्धि कि एक उपज है हमारे अपने ही 20वीं सदी की जनमाई गई ट्रेन या की रेलगाड़ी।

हिन्द स्वराज पन्ना नं॰ – 39 हिंदुस्तान की दशा (रेल गाड़ी ) में महात्मा गांधी ने अपना मत साफ दर्शाया है। उन्होने इसके नुकसान भी गिनाए हैं। उन्होने तीन चीजों को भारत के लिए नुकसानदेह बताया है। डॉक्टर, वकील और ट्रेन। डॉक्टर और वकील कि सामाजिक व्यवस्था के नकारात्मक पहलू तो समझ में आते हैं, समझ आता है कि वह नुकसानदेह क्यों है। उनके स्वार्थी होने का नतीजा समाज को भुगतना पड़ता है और अब तो वह एक गंभीर रूप लेता जा रहा है। डॉक्टरों को तो मैं खुद भी भुगत चुकी हूँ। मेरे पापा की बीमारी के समय मेरी मम्मी और मामा की डॉक्टरी ही काम आई । अधकचरा ज्ञान रखने वाले डॉक्टरों की तो जैसे फ़ौज सी खड़ी हो गई है आम आदमी के सामने। और जैसे वह फ़ौज कह रही हो “आऔ, तुम्हें कहा आई॰ वी॰ लगाऊँ ”।
वकील जो नुकसान करते है वह भी साफ दिखता है। स्वार्थी वकील अगर अनैतिक वकालत करने पर उतारू हो जाएँ तो समाज के बुरे तत्वो का बढ़ना सुगम हो जाता है। महात्मा गांधी खुद एक वकील थे इसलिए वह यह जो बात कहते हैं और तर्क देते है वो मन को जंचता है।

पर “रेलगाड़ी ” ! रेल गाड़ी क्यों ? ये बात कुछ लोगों को हजम नहीं हो सकती। लग सकता है की भाई यह तो भारत को जोड़ कर रखने का एक बड़ा माध्यम है इसी के कारण तो भारत अखंड रहा और है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का पहला कदम है, इत्यादि। मुझे भी यही लगा, और उनके तर्कों को मन ने नकारा तो नहीं पर बहाने ढूंढ़ना शुरू किया। सोचा “ बात तो बड़े पते की है पर PRACTICAL नहीं है”।

छूक छूक गाड़ी में बचपन के वो अनगिनत प्रवास याद आ गए। बचपन से ले कर अब तक की वो असंख्य यात्राएं जो मैंने अपने परिवार, दोस्तों या फिर अकेले की थी बड़ी लुभावनी लगती हैं । नागपुर जाते वक्त वर्धा स्टेशन के दाल के पकौड़े। ठंड में झाँसी पर सुबह 3 बजे की कुल्हड़ वाली सौंधी महक की चाय। पंजाब के खेतों में नील गाय की झलकियाँ। शिमला के toy train की वो सैर, यह सारी बड़ी लुभावनी यादें हैं। तो फिर ऐसा क्यों ? ऐसा क्या है जो उन्हें ये कहने पर मजबूर करता है कि डॉक्टर और वकील के अलावा भारत कि इस स्थिति कि जिम्मेदार ट्रेन भी है।


आगे पढ़ो तो बात साफ होती है। जँचती हैं, तर्कसंगत लगतीं हैं। चार बातें ध्यान में आतीं हैं।

पहली बात जो ध्यान में आई वो थीं कि भारत की एकता और अखंडता के पीछे किसी जीवन विहीन लोहे के ढांचे का या फिर किसी नैतिकता विहीन सामराज्य का हाथ नहीं बल्कि भारत सैकड़ों सालों से इसकी संस्कृतिक मान्यताओं के कारण जुड़ा हुआ है। भारत को जोड़ने के लिए किसी एक राजा या साम्राज्य की ज़रूरत नहीं।
दूसरे, प्रकृतिक विपदाओं (बीमारियों का ) का तेज़ी से फैलने में ट्रेन कहीं न कहीं सबसे बड़ा साधन रही है। यह तो आप विदेश जाते समय भी देखते हैं कि वो कितनी सावधानी बरतते हैं जब कोई नया उनके देश में प्रवेश ले रहा होता है।

और फिर, असामाजिक तत्वों का देश और दुनिया में फैलना और फैलाना और भी आसान हो जाता है।


पर सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे लगती है वह है इसके कारण शुरू हुआ नुकसान किसानों को भी झेलना पड़ता है। अकाल कि संभावनाएं बढ़ जाती हैं। किसान लापरवाह हो, लालच में दूर जा कर भी जहां बाज़ार महँगा है वहाँ अपना अनाज बेच आते हैं जिस कारण जहां बाज़ार सस्ता है उस इलाके में अकाल कि नौबत आ जाती है।
मेरे खयाल से हमने वो हर संभव चीज़ कर दी है और प्रकृति के नीयमों के खिलाफ हर क्षेत्र में जा चुके हैं जिससे उसे नुकसान पहुंचे। बांध बनाने से ले कर परमाणु बम के ईजाद तक। और, इस मामले में भी हमने अपनी रफ्तार सामान्य से कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी है। यहाँ तक कि अब तो हमें हवाई यात्रा भी धीमी लगती है। सबसे तेज़ चलो कि हम दुनिया में सबके साथ नहीं सबसे आगे बढ़ जाएँ कि दुनिया को कब्जे में ही कर लें। ये असामान्य तेज़ी इन्हीं भावनाओं के कारण पनपी है। और इसी मानसिकता से लाया गया थी ट्रेन भारत भी। प्रकृति के दिये गुणों से हमे संतुष्टि नहीं। इस इंसान रूपी जानवर को “और ज़्यादा” की लालसा है। “मैं और मेरे” के साथ और ज़्यादा कि चाहत भी जुड़ गई है। विडम्बना यह है कि अब कोशिश के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता।

दो पहिये वाली गाड़ियों कि रफ्तार भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। अलग अलग कंपनियाँ ज़ोर शोर से इस प्रतियोगिता में जुटी हैं कि कौन सबसे पहले, और पहले से भी ज़्यादा तेज़ गाड़ी निकालता है। और हम ललचाई भरी निगाहों से उसके आने का इंतज़ार भी करते हैं। पुणे जैसे शहरों का हाल बेहाल इन्हीं दो पहियों कि गाड़ियों ने कर रखा है। मुसीबत यह है कि इसकी हमें आदत सी हो गई है। इसके विरोध में पुणे का एक युवा वर्ग एकत्र हो कर इसके खिलाफ अलग अलग तरीकों से प्रयास करता आया है। पर इन बड़ी कंपनियों कि काला बाजारी और साजिश में शामिल इस सरकार से लड़ना आसान नहीं। उनका कहना है कि इन दो पहियों कि गाड़ियों को कम कर अगर state transport कि बसों कि हालत सुधारी जाए और उन्हें इस्तेमाल में लाया जाए तो ऐसे शहरों को बड़ी राहत मिले। पर कौन सुनेगा उनकी और इन बातों समझेगा कौन।

रेल गाड़ी के मामले में तो सच कहूँ तो यह एक बहुत अव्यवहारिक कदम होगा अगर किसी ने उसका बहिष्कार कर दिया। मैं खुद भी यही चाहती हूँ कि एक जगह से दूसरी जगह मैं जल्द से जल्द पहुँच जाऊँ।

तो शायद संतोष इसी में हैं कि थोड़ी बहुत हालत को सुधारने कि कोशिश के साथ और इस छूक छूक गाड़ी की खराबियों को दरकिनार कर उसकी यात्रा का मज़ा लिया जाए।

Sunday 3 July 2011

हू हा !!!

मैं जब याद करती हूँ, अपने पिछले 15 साल तब, एक बहुत बड़ा तो नहीं पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय मेरी ज़िंदगी का सामने आता है। वह है मेरी खेलों में रुचि, खासकर एक ऐसे खेल में जिसे आम भाषा में आत्मरक्षा के लिए किया जाने वाला एक तरीका समझा जाता है। यह खेल है “कराटे”।

मैं जब तेरह साल की थी तब मैंने इसे शुरू किया। मेरी ज़िंदगी में इसका प्रभाव महत्व का है क्योंकि जब मैंने इसे शुरू किया तब से इसने मेरे अंदर बहुत से सकारात्मक बदलाव लाये।
हम जब भी नागपुर जाते मेरी माँ मुझे और मेरी दीदी को कुछ न कुछ नया सिखवाती। उनका आग्रह रहता कि हम सारी कलात्मक कलाओं को जाने और फिर जिसमें दिलचस्पी बढ़े उसे लेकर आगे बढ़ें। ये पहली बार था जब माँ ने मुझे नागपुर के एक मशहूर स्टेडियम जिसका नाम यशवंत स्टेडियम है, में ले गई। जब मैं पहली बार मम्मी के साथ स्टेडियम में घुसी तो उसके मुहाने पर ही हमें चौकीदार ने रोक लिया। पूछा “कौन से खेल में प्रवेश लेना है आपको”। उस बूढ़े चौकीदार का पूछना मिठास से भरा था। हमने बताया कि हम कराटे वालों से मिलना चाहते हैं। उस स्टेडियम में विभिन्न प्रकार के खेलों का अभ्यास किया जाता था। football, Boxing, basket ball, handball इत्यादि।
चौकीदार से पूछ कर हम अंदर कि तरफ मुड़े तो देखा, शाम की रौशनी में स्टेडियम का सारा वातावरण बड़ा रोमांचकारी लगा। खुले आकाश के नीचे कुछ लड़के और लड़कियां boxing का अभ्यास कर रहे थे तो कुछ football के खिलाड़ी warm-up। जैसे ही मैं माँ के साथ अंदर घुसी मेरे बिलकुल सीध में मुझे कराटे का uniform पहने कुछ 20 – 30 लड़के लड़कियां दिखाई दिये। उन्हे देखते ही मैं मन ही मन खुशी से नाचने लगी। वो सभी कुमीते (Fight) कि तैयारी कर रहे थे। मैंने देखा एक काला सा लड़का जिसकी ऊँचाई भी मेरी जितनी ही होगी (करीब 5.3 ) मुझे और मेरी माँ को वहाँ रुका देख हमारी तरफ आने लगा। उस लड़के का “गी” (गी कराटे के uniform को कहा जाता है) दूध की तरह सफ़ेद बिलकुल उसके दांतों से मेल खाता हुआ था, और उसकी आंखे तेज़ सी चमकती हुई थी। उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ मेरी माँ का अभिवादन किया और मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देखा। मुझसे प्रपत्र भरवाया गया, और अब मैं उस क्लास में भर्ती हो चुकी थी। मैं अपने teenage के शुरुआत में थी और मेरा वज़न बढ़ता ही जा रहा था।कोई भी मुझे अच्छा खासा स्वस्थ बच्चा कह सकता था। इसका मेरे मन और शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था। मेरी पीठ बात बे बात दर्द करती। जो की एक बहुत ही खराब लक्षण था। वो लड़का जो अब मेरा शिक्षक था उसने मुझे देखते ही बोला “तुम्हें अपना वज़न कम करने की ज़रूरत है”। और कुछ ऐसे शब्दों में कहा कि बात मन को चुभ सी गई। फिर क्या था शर्म से मेरे दोनों कान गरम हो गए और आँखों में आँसू बस आ ही गए समझो, ऐसा लगाने लगा। मैंने मम्मी की तरफ देखा।
थोड़ी देर बाद हमने “गी” सिलवाने के लिए दिया और अगले दिन की वापस इसी जगह आने की तैयारी मन ही मन करते हुये मैं घर आ गई। मुझे याद है और इस बात की बेहद खुशी भी कि मैं वापस अगले दिन उसी जगह पहुँच गई। अपने दिल के संकोच को हटा कर और शायद माँ की ज़िद के कारण मैंने उस इंसान का फिर से सामना किया जिसने मुझे मोटा कहा था। हाँ, तीन महीने बाद मेरी रंगत बदली हुई थी। मैंने 5 से 8 kg कम किया था और एक पतली दुबली और लंबी लड़की का रूप ले लिया था। मेरा कद एक से दो इंच बढ़ गया था और अब मुझे बड़ा ही हल्का महसूस होता था। हमारे शिक्षक जिन्हे हम शेंपाइ बुलाते। हमें बड़ी यातना देते थे। जी तोड़ने वाली मेहनत तो हमसे करवाते ही समय बे समय हमे मुक्के और लातें भी खानी पड़ती। वो ये बिलकुल नहीं देखते की सामने लड़का है या लड़की, वो हममें बिलकुल फर्क नहीं करते। जितनी मेहनत लड़कों से करवाते उतनी ही लड़कियों से। उनके बात बे बात के भाषणों में ये वाक्य बार बार आता, हमारी तरफ देख कर वो कहते “यह मत समझ लेना की तुम लड़की हो इसलिए तुम्हें मैं किसी प्रकार की छूट दे दूंगा, तुम्हारे अंदर इतनी हिम्मत और ताकत होनी चाहिए की तुम किसी लड़के से भी लड़ सकने की हिम्मत रख सको” और हम उनकी ये बात सुनकर मन ही मन सोचते “बच्चू , ये हमें नहीं छोड़ने वाला”। सच कहूँ तो उस यातना में हम सभी को एक प्रकार का मज़ा आता। वो लड़का हमारे अंदर जोश भर देता और हम वही करते जो वह हमें उन दो घंटो में करने को कहता। हम दो घंटे लगातार practice करते बीच में बिना विश्राम किए, बशर्ते की बारिश न हो रही हो। शुरुआती दस दिनों में मैंने बड़े ही जोरदार तरीके से मुक्के मारना सीखा। मुक्को में तीन प्रकार प्रमुख हैं। ऊपर, नीचे और बीच में मारना। फिर आई लातों की बारी जो मेरा पसंदीदा था। उसमें भी अलग अलग प्रकार थे। पर एक लात (kick) ऐसी है जिसे आप प्रतिद्वंदी के सीधा गाल पर मारते हैं। जिसमें बाद में जा कर मैं पारंगत हुई और भविष्य में इस किक के कारण मैं मशहूर हुई। फिर एक दूसरी किक थी जिसे बॅक किक कहते हैं और तीसरी और सबसे खतरनाक किक है राउंड किक। यह अगर किसी को पूरी ताकत के साथ और सही निशाने पर लगे तो उसका जबड़ा बचना मुश्किल है। इस खेल को आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो खुद को बचाने के भी कुछ प्रकार हैं। जिन्हे अँग्रेजी में ब्लॉक कहते है।



करीब एक महीने बाद मुझे मेरा पहला काता सिखाया गया। जो कराटे का मेरा पसंदीदा विभाग है। काता बहुत से कराटे के fighting स्टेप्स को जोड़ कर बनाया जाता है। आसान शब्दों में यह एक पूर्व नियोजित काल्पनिक लड़ाई है। जो मुख्यत: प्रतियोगिताओं में ही इस्तेमाल की जाती है। इसे judge करने के लिए पाँच निर्णायक नियुक्त होते है। जिनमें से चार हर एक कोने पर और एक ठीक सामने बैठा होता है। काता में हर चाल का परिपूर्ण होना, चेहरे का expression और वह व्यक्ति कितने आत्मविश्वास के साथ उसका पालन कर रहा है यह देखा जाता है। काता को कराटे की रीढ़ भी कहा जाता है। वैसे तो मैंने कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया था पर मेरे यादगार दो हैं। जिनकी खूबियाँ और घटनाक्रम मैं आपके साथ बांटना चाहूंगी।
मुझे बेहद पसंद है यह प्रतियोगिता क्योंकि यहाँ से आगे की सारी प्रतियोगिताओं में मैंने स्वर्ण पदक जीते थे। मुंबई की यह प्रतियोगिता राज्य स्तरीय थी और यह मेरी दूसरी प्रतियोगिता थी। पहली वाली शायद अनुभव कम होने के कारण और मेरे सारे प्रतिद्वंदी मुझसे अग्रज होने के कारण मैं हार गई थी। तो मुंबई की प्रतियोगिता में मैंने अपना जी जान लगा कर खेला था। अपना सौ प्रतिशत उसमें दिया था और उसका फल मेरे हाथों में था। मेरे हाथों में दो चमकते हुये स्वर्ण पदक थे। मुझे याद है, काता तो मैंने चुटकियों में जीत लिया था। इस प्रतियोगिता में मैंने छोटे स्तर का काता ही किया था। यहाँ आपने कौन सा काता किया है यह भी महत्वपूर्ण होता है। पर जैसा कि मुझे कराटे करते हुये ज़्यादा महीने नहीं हुये थे इसलिए मेरे पास ज़्यादा संग्रह नहीं था। लेकिन इस छोटे संग्रह में भी मैंने अपने अग्रज सारे प्रतिद्वईयों को हराया था। जिस कारण मेरा स्वागत तालियों के साथ किया गया था। इसे मैंने मुंबई के विरोध में जीता था इसलिए मेरे शिक्षक और सहपाठी बड़े खुश हुये थे। नागपुर और मुंबई के ग्रुप में हमेशा प्रतिद्वंदीता चलती क्योंकि हम ही थे जो मुंबईकारों को टक्कर देते, और जीतते भी थे।
मुझे मेरा कुमीते बहुत ही अच्छे से याद है। इस tournament के बाद मुंबई वालों के लिए मैं एक चुनौती थी। आपका, बारी बारी से आपके प्रतिद्वंदी के साथ कुमीते होता है, अगर आप जीते तो आप आगे गए अथवा आप पीछे ही जाते है। मुझे याद है दूसरे कुमीते में मेरी प्रतिद्वंदी ने नीयम के विरुद्ध जा कर मेरे चेहरे पर मुक्का मारा था। जिससे मेरा होठ फट गया था और खून निकालने लगा था। मेरे सर में एक ज़ोर का झटका लगा था औए एक सेकंड के लिए जैसे ब्लैकआउट हो गया था। इस बात से अंजान मैंने खुद को सम्हाला और फिर उठ खड़ी हुई। । मैंने referee की तरफ देखा, मुझे बड़ा अजीब लगा। वो और बाकी सब मेरी तरफ बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। मैंने सोचा “सब मेरी तरफ ही क्यों देख रहे है” इस बात की तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं देते हुये मैं अपनी जगह पर फिर जा कर खड़ी हो गई। मेरे सामने अभी उस विचार के ऊपर ज़्यादा ध्यान देने से ज़्यादा महत्वपूर्ण था फीर से खुद को तैयार करना। 3-4 सेकंड बीते पर जब referee ने फिर भी कुछ नहीं किया तो मैंने आश्चर्य भरी निगाहों से अपने सिर की तरफ देखा। वो भी मेरी ही तरफ देख रहे थे। फिर उन्हे ध्यान आया की मुझे शायद इस बात का ज्ञान ही नहीं की मेरे होंठ से खून निकाल रहा है। उन्होने मुझे इशारा किया। मैंने जैसे ही अपने होठ पर हाथ रखा मुझमे हल्की सी टीस उठी, और हाथों में लगे खून को देख मैं चौंक पड़ी।यह मेरा पहला खुना खूनी का अनुभव था। मैंने अपने हाथों पर लगे खून की तरफ देखा और न चाहते हुये भी मेरी नज़र उस लड़की की तरफ गई। मुझे पता था अगर मैंने उसकी तरफ देखा तो referee मेरे चेहरे के गुस्से को पढ़ लेगा, जो मेरे लिए ठीक नहीं होता।मैंने देखा, referee मेरे प्रतिद्वंदी को उसकी गलती पर डांट रहा था और दूसरों जजों को full penalty के लिए कह रह था। full penalty तब मिलती है जब विरोधी पक्ष ने जानबूझ कर नियमों का उलंघन करके हमला किया हो। लड़की के तरफ के उसके साथी referee तक को उसके इस निर्णय के लिए hoot करने लगे, जिससे वो और चिढ़ गया। इतनी ही देर में मेरा first aid भी हो गया। मेरे referee ने मुझसे पूछा की मैं तैयार हूँ? और मैंने सहमति में अपना सिर हिला दिया। Referee ने मुझे भी चेतावनी दी, उसे ड़र था की मैं कहीं उसके ऊपर टूट न पड़ूँ। पर मेरा योजना कुछ और ही थी। मैं शांत दिमाग से और सारे नियमों का पालन करते हुये tournament जीतना चाहती थी। referee ने उसे penalty दी और मुझे full point। उसने शुरुआत कहा और हम तैयार हो गए।
सब कहते तो हैं की वो मुझे buck up कर रहे थे सच कहूँ तो मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मन जैसे खाली सा हो गया था। और मुझे बस वह लड़की और उसके प्यारे गाल दिखाई दे रहे थे। जो की मेरा निशाना था। रणनीति यह कहती है, की लड़ाई के मैदान में दुश्मन को थोड़ा चकमा दो और फिर ज़ोर का वार करो। मैंने भी वही किया। उसे चकमा देती और वार करती। वैसे, वो भी कम तेज़ नहीं थी। पर दो तीन बार के बाद मैंने लगातार तीन पूरे points ले लिए। और समय की समाप्ती की घोषणा के साथ ही मुझे विजय घोषित किया गया। इसके बाद मैंने एक और round खेला। और मेरे हाथों में स्वर्ण पदक था। यह मेरा पहली प्रतियोगिता थी जिसमें मैंने काता और कुमीते दोनों में ही स्वर्ण पदक जीता था। फिर क्या था मुझे जैसे पदकों का चस्का सा लग गया। मुझे मेरे शिक्षक जानबूझ कर प्रतियोगिताओं में भेजते, क्योंकि जिस प्रतियोगिता में मैं गई, समझो दो स्वर्ण पदक पक्के हैं।
इस प्रतियोगिता के अंत में senior ब्लाक बेल्ट कुमिते होना था। जिसे देखने मेरे माँ पिता और डेनियल चाचा भी आए थे। अपने senior को खेलते देखना एक अलग ही रोमांच पैदा करता है। और रोमांच चरम सीमा पर रहता है जब फाइनल चल रहा हो। पूरा स्टेडियम जैसे गूंज जाता है। सारों का excitement से और लगातार चिल्लाने के कारण गले का बुरा हाल रहता है। और सब तब और उत्तेजित हो जाते हैं जब अपना सीनियर जीत रहा हो और referee पक्षपात कर रहा हो। हाँ, वो पक्षपात ही कर रहे थे क्योंकि हम साफ साफ देख पा रहे थे की कहाँ point मिल सकता है, और वो जान बूझ कर नहीं दे रहे थे। उनका पक्षपात करना इसलिए था क्योंकि जो प्रतियोगी हमारे सर के विरुद्ध खेल रहा था वह वहाँ के मुख्य संचालकों को प्रिय था, और जो ऊपाधी उस match को जीत कर मिलती वह काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। उसकी हार जैसे वहाँ के संचालकों की हार होती। हम वह अन्याय देख (हमारे लिए वह अन्याय से कम नहीं था) उग्र हो रहे थे पर वह थे जो हमें इशारों से शांत रहने का इशारा कर रहे थे और खुद तो वह थे ही। मैंने उन्ही से सीखा था, शांत दिमाग से खेलना। खैर होना क्या था। उन्होने इतना अच्छा खेला की उन्होने खेल जीत लिया, और उपाधि भी।
यहाँ एक और टूर्नामेंट की बात बताती हूँ आपको। अब मैं अग्रणीयों में गिनी जाती थी और अब मुझे काफ़ी अनुभव भी हो चला था। इस बार हम आजमेर गए। वहाँ हमारा राष्ट्रिय स्तर की
प्रतियोगिता थी। महाराष्ट्र की तरफ से सिर्फ नागपुर वालों को ही चुना गया था महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए, इसलिए हमारे कंधो पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी थी। महाराष्ट्र प्रमुख, भी वहाँ मौजूद थे हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए। सच कहें तो उनके वहाँ रहने से हम ज़्यादा दबाव ही महसूस कर रहे थे। मैं अपने वर्ग में अकेली थी तो इस कारण मुझ पर मेरे स्तर के प्रतिद्वंदीयों को हारने की ज़्यादा ज़िम्मेदारी थी। थोड़ी अधीर हो रही थी मैं। मैं अच्छे से जानती थी मेरे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को। पर जब प्रतियोगिता शुरू हुई तो इससे ज़्यादा आसान कोई और चीज़ नहीं लगी । जब मैंने काता और कुमिटे दोनों जीत लिए और उन्हे ले कर मैं सर के पास गई तो वो मुझे ले कर तुरत हमारे प्रमुख के पास ले कर गए। उनका पैर छू कर मैंने आशीर्वाद लिया था और खुश मन से वापस अपनी जगह अपने दोस्तों को प्रोत्साहित करने आ गई थी। मेरे दोस्तों में से कुछ का अभी भी कुमीते बाकी था।
अजमेर में हम प्रतियोगिता के बाद अजमेर शरीफ भी गए। और वहाँ के वातावरण और सूफी संगीत का आनंद भी उठाया। अब लगता है तो सोचती हूँ अच्छा ही किया जो हम अजमेर शरीफ़ पहले नहीं गए नहीं तो हमारे जीतने का श्रेय भगवान जी ले जाते क्योंकि हमारे समूह में ऐसे लोग भी कम नहीं थे जो यह आराम से कह देते की भाई ये तो सब ऊपर वाले की कृपा का नतीजा है। अजमेर की यह प्रतियोगिता मेरे लिए खास है। क्योंकि अब मैं एक national champion थी।



2000 में मैंने अपनी अंतिम प्रतियोगिता खेली थी। उसके बाद चाह के भी मैं फिर कभी practice के लिए या किसी प्रतियोगिता में भाग लेने नहीं जा पाई। क्योंकि अब मेरी प्राथमिकताएं कुछ और थीं। मेरे सामने मुझे दिख रहा था की अब मुझे अपनी सारी जिंदगी बनानी थी। मैं सिर्फ इस खेल तक सीमित नहीं रह सकती थी। मुझे आगे बढ़ना था और मैंने वही किया। कुछ अभी भी है जो अब भी वहाँ जाते हैं और 11 साल से ऊपर हो आया की वे अब भी उस खेल को खेलते हैं। पर मेरे लिए बस वो तीन चार चमकीले साल ही काफी थे। मुझे जो फायदा उस खेल से लेना था मैंने ले लिया।
यह सारी यादें बताने का मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना था कि मैं लोगों को बता सकूँ मेरी भावनाएं । मुझे लगता है कि हर किसी को किसी न किसी खेल में आगे बढ़ना चाहिए। खास कर कराटे एक ऐसा खेल है जो आपको physically तो मजबूत बनाता ही है मानसिक तौर पर भी आपके अंदर एक आत्मविश्वास का संचार करता है। लड़कियों के लिए तो यह एक पारस पत्थर है। यह खेल आपको ज़्यादा सजग, चौकन्ना, और ध्यान केन्द्रित करना सिखाता है। समय बीतने के साथ इसे आत्मरक्षा के रूप में ही प्रस्तुत किया जाने लगा जो एक हद तक ही सही है।
मैं अब भी जब नागपुर जाती हूँ, मेरे शेंपई से मिलती हूँ। उन्हे झुक कर नमस्कार भी करती हूँ (आपने यह नमस्कार बहुत बार चाइनीज़ फिल्मों में देखा होगा)। इसे कहते समय हम चाइनीज़ में अब भी कहते (Aari gato gojai masta).

Friday 24 June 2011

खुद का साक्षात्कार

दस दिन का विपश्यना शिविर करने के बाद (लगभग 9 साल बाद) ये मेरा तीसरा शिविर था, दसवें दिन हमें पता चला कि गुरुजी (गोयंका जी ) बुद्ध पूर्णिमा के दिन ग्लोबल पगौड़ा आएंगे। किस समय, कितनी देर रहेंगे ये पता नहीं था। पर जैसे ही मेरी माँ ने मुझे ये खबर सुनाई, मेरी खुशी कि सीमा ही नहीं थी। ये मेरा तीसरा शिविर था। इस शिविर में मैंने अपने बारे में बहुत खुछ सीखा था। खुद को जंजालों से पूरी तरह नहीं तो थोड़ा ही सही, खुद ही, मुक्त भी किया था। मुझे मेरी चिंताओं और खुशी में समता मे रहना, मैंने खुद को अपने बलबूते पर सिखाया था। दस दिन (झूठ न बोलूँ तो ये पहली बार था जब मैंने दसों दिन बात नहीं कि और सारे नीयमों का पालन किया ) मुझे खुद में खुद के कारण सकारात्मक परिवर्तन देख कर अच्छा लगा। तो ऐसे समय जब मुझे पता चला कि शायद गुरुजी को देखने का मौका मिले, तो हमने सोचा की हमारी कोशिश, सारे कामों को सारे कामों को साथ साथ करते हुये यह भी रहेगी की उनको एक बार देखा जाए। तो हम ईगतपुरी से पुणे आये और दिन बीतते गए। हम रोज़ दो घंटे विपश्यना करने की कोशिश करते और 50 % हमें सफलता भी मिली। हम अपने काम में पुणे में इतने व्यस्त रहे की 17 तारीख कब आई पता ही नहीं चला। इस बीच मैं बड़ी सतर्कता से खुद मे आए परिवर्तनों को देख रही थी और नोटिस भी कर रही थी। सतर्कता इसलिए थी, क्योंकि मैं ऐसे परिवार से हूँ जहां मेरे पिता, माँ, दीदी और अन्य परिवार के लोग झूठे कर्मकांडों पर विश्वास नहीं रखते। उनका सख्त विरोध भी करते हैं, और उन्हे स्पष्ट तौर पर दुनिया को दिखने में (जहाँ जरूरत पड़े) पीछे भी नहीं रहते।
मैं देख रही थी की क्या मुझमें सच में परिवर्तन हुआ है, या यह सिर्फ़ मेरा वहम है, जो अंधश्रद्धा तो नहीं। और मैंने देखा की उनमें से कुछ भी वहम नहीं था। जो परिवर्तन मेरे अंदर आए वो मुझे साफ़ दिखाई दिये, अथवा परिवर्तन नहीं हुआ है यह भी मैंने देखा। और बड़ी तटस्थता के साथ देखा कि “मुझमें यह परिवर्तन हुआ है, और यह नहीं हुआ है ”। कहीं guilty consciousness महसूस नहीं होने दिया।
तो जब “17 मे” को हम मुंबई के लिए रवाना हुए, और दोपहर तक वहाँ पहुंचे तो थक भी गए थे, और भूख भी लग आई थी। पापा के पुराने मित्र डेनियल भाई और हंसा बहन (भाई ओर बहन सम्बोधन गुजराती में किसी को आदर देते समय लगाया जाता है) के यहाँ रुके। अगले दिन के कार्यक्रम का हिसाब किताब किया तो पता चला, कि मुलुंड, जहाँ हम रुके थे वहाँ से ग्लोबल पगौड़ा जो Essellworld के पास था, जाने में 3 घंटे लगेंगे, और वहाँ अगर हमें समय पर पहुँचना है तो हमें 4 बजे ही उठाना पड़ेगा। अगर मैं पहले कि होती, तो 4 बजे उठने का समय सुनकर सोचती कि चलो आज तो रात भर का जागरण है, या फ़िर माँ मुझे बड़े ही मुश्किल से उठाती। पर सुबह 4 बजे उठाने कि आदत मुझे विपश्यना शिविर मे ही लग चुकी थी इसलिए मुझे सुबह उठाने में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई।
हम तैयार हो कर बस स्टैंड गए और वाहब से गोराई के लिए सीधी जाने वाली बस पकड़ ली। Coincidence था कि जाते समय ही हमें दो बहने और, जो वहीं जा रही थी मिल गईं। और 3 घंटे का रास्ता हमने साथ ही तय किया। मुंबई की उमस भरी गर्मी में जब हम गोराई beach पर उतरे तो वहाँ कि तीखी कच्ची मछ्ली कि गंध ने बरबस हाथ को नाक पर आने के लिए मजबूर कर दिया। टिकिट काउंटर पर भी दुपट्टे से अपना नाक दबाये और बीच बीच में हाथ हटकर यह देखते कि कोशिश करते हुए की गंध चली गई क्या? किसी तरह टिकिट ले ली।
जब स्टीमर पर बैठे तो एकाएक सामने मेरी विपश्यना शिविर की साथी दिख गई। वो भी अपनी माँ जिन्होने कई बार शिविर किया है और अब व्यवस्थापकों में भी हैं, मैंने उन्हे अपने पास बैठने का न्योता दिया, और फ़िर फोटो session शुरू हुआ।
पगौड़ा और उसकी भव्यता हमें दूर से ही दिखाई दे रही थी। जैसे जैसे हम पास पहुँचने लगे वैसे वैसे मेरा excitement और बढ़ता गया। फ़िर ध्यान आया। “अरे मुझे तो समता में रहना है ”। पर समता में रहने का प्लान कहाँ चला गया पता नहीं, और फ़िर तो ऐसा लगा जैसे समुद्र की लहरों के साथ मुझमें भी तरंगे उठ रही हों। उन्हे और पगौड़ा दोनों को देखते हुये और मन ही मन खूब खुश होते हुए हम उस किनारे पहुंचे। जहाँ से एक तरफ का रास्ता Essellworld की तरफ जाता था, और एक पगौड़ा की तरफ। पगौड़ा की तरफ जाते हुये मुझे ध्यान आया की मुझे Essellworld जाने की बजाय पगौड़ा जाने में अंतरमन से खुशी हो रही थी। यह ग्लोबल पगौड़ा अपने में ही एक अजूबा है, इसकी भव्यता और सुंदरता के कारण तो है ही, Civil Engineering की द्रुष्टि से भी यह एक अप्रतीम नमूना है। इसके शुरुआत में Beams हैं जो पूरे ढांचे को सपोर्ट करती हैं, और उसके बाद कोई beam कोई pillar नहीं बनाया गया है। ये शायद मैं दुनिया का आठवाँ अजूबा देख रही थी। इतना भव्य कि आकाश में एक और आकाश नज़र आ रहा था, जिसमें सच में पक्षी भी उड़ रहे थे (ये सिर्फ़ अंदाज़ा ही कर सकते हैं कि वो पक्षी कबूतर रहे होंगे )। इस पगौड़े कि एक और खासियत यह है कि ये दुनिया का इकलौता पगौड़ा है जहाँ पूजा पाठ नहीं बल्कि कुछ रचनात्मक काम किया किए जाते हैं।
नाश्ता करने के बाद हम ध्यान के लिए बैठे। गुरुजी तीन बजे आने वाले थे। और उनके 1 घंटे के प्रवचन के बाद हमें छुट्टी मिलती। कहते हैं कि कोई काम अगर साथ में करो तो वो काम और अच्छे से होता है। शायद यह नीयम यहाँ भी लागू होता है। 3 घंटे का समय ध्यान करने में कैसे बीता, पता ही नहीं चला। हाँ, बीच बीच में एक- एक घंटे के अंतराल पर पाँच मिनट का विश्राम दिया जाता था, फ़िर दोपहर के खाने का भी विश्राम आया जो एक घंटे का था। खैर, समय बीता और गुरुजी के आने का समय पास आया। वहाँ के व्यवस्थापकों ने Mike पर घोषित किया कि गुरुजी के आने तक आप अपना ध्यान करना जारी रखें। पर वो कहाँ होना था। उनका यह कहना खत्म हुआ, कि मेरी दोनों आंखे खुली। अगल बगल देखा तो एक तरफ मेरी मित्र भी मेरी ही तरफ देख रही थी। हम दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए, और उसी क्षण हमने मन ही मन आर्य मौन कि समाप्ती की घोषणा कर दी। दूसरी तरफ देखा तो एक 30 - 35 साल की महिला अभी भी बड़े ज़ोरों शोरों से ध्यान करने में जुटी हुई थीं। उसे देख कर एक सेकंड के लिए लगा की, " अरे यह ठीक नहीं, मुझे भी ध्यान करते रहना चाहिए "। और मैंने फिर से अपनी आँखें बंद कर लीं। पर वह सिर्फ़ ध्यान करने की कोशिश भर थी। ध्यान कहाँ लाग्ने वाला था। मैंने आँखें फ़िर खोल दीं उसी समय पीछे कुछ शोर सा हुआ, और मैंने सोच की इस आर्य मौन के समय कहाँ से, और कौन शोर कर रहा है। पीछे देखा, तो भीड़ की भीड़ पगौड़ा के अंदर आ रही थी। जो लोग अंदर आए उनमें से कुछ ने शायद विपश्याना को शमझा हो, और जो ध्यान कर रहें हैं उन्हे दिक्कत न हो ऐसा सोचा हो। पर ज़्यादातर लोग ऐसे थे जिनहे विपश्याना से कोई सरोकार नहीं था। शायद पहली बार आए थे। खैर, इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं, शुरुआत तो पहली बार ही होती है। और मान लें की ये उनकी शुरुआत ही थी।
सभी से विनम्र विनती की गई कि, जब गूरुजी आयें तो सभी अपने अपने स्थान पर ही बैठे रहें।
पगौड़े में आठ दरवाज़े हैं और सभी दरवाजों के ऊपर हिन्दी व इंगलिश में उन्हें क्रमांकित किया गया है। मेरे ध्यान मे आया कि दरवाज़ा नंबर 1 दूसरे दरवाजों से थोड़ा बड़ा है। मैंने अनुमान लगाया कि शायद यहीं से गूरुजी आएंगे। और हुआ भी यही। एकाएक हॉल में एक हलचल सी मची, पर कोई भी अपनी जगह से उठा नहीं। देखा, तो एक कार्यकर्ता गूरुजी और उनकी पत्नी (इलायची देवी) दोनों को wheel chair पर लेकर आ रहे थे। मुझे यह पहले से ही पता था कि गूरुजी अब wheel chair पर ही आते जाते हैं। और जायज़ भी है। 87 कि उम्र में वो इतना सब कर प रहे हैं यही काफ़ी है। मुझे लगा था कि गूरुजी के आने पर मैं भाव विव्हल हो जाऊँगी और शायद मुझे रोना भी आए। पर मुझे रोना नहीं आया, हाँ उन्हे देख कर मुझे सच्चे मन से खुशी ज़रूर हुई ।
गूरुजी का प्रवचल एक घंटे चला जिसमें उन्होने बहुत सी बातें बताई। उन्होने विपश्याना नाम का मतलब, उसका इतिहास और उसके फायदे बताए।
विपश्याना का संधि विच्छेद करें (वैसे यह शब्द पुरातन भारत में इस्तेमाल होता था, और आप इसे अब किसी भी शब्दकोश में नहीं देखेंगे) तो ये दो भागों में टूटता है, एक "वि" दूसरा "पश्याना"। पश्याना अर्थात खुद को देखना और अगर वि जोड़ दिया तो अर्थ हुआ खुद को विशेष रूप से देखना। सुनने में ये एक बहुत ही साधारण अर्थ का शब्द लगता है, पर ध्यान दें तो खुद को देखना यही सबसे महत्वपूर्ण बात लगेगी। खुद कि बुराइयों और अच्छाइयों को देखना और मान लेना, पूरी तटस्थता के साथ, यही तो है विपश्याना। बात बहुत साधारण है। आप समाज में या खुद में बुराइयों को देखते हैं। Inferiority complex और superiority complex को पाल कर रखते हैं। जिस दिन बिना guilt महसूस किए हमने माना कि "हाँ, मुझमें यह बुराई है", उस दिन से वो समाज या व्यक्ति अपने स्तर पर उसे दूर करने की कोशिश करता है। जब तक माना ही नहीं तो सुधारना कैसा। हाँ, यहाँ एक और बात है। यहाँ आपको ही यह काम करना है। खुद को ही, खुद से लड़ना है। कोई भगवान या देवता (अगर है भी) तो वो आपको इन सभी परेशानियों से निकालने के लिए अवतरित नहीं होगा। इसलिए, थोड़ा कठिन है, आसान नहीं। दूसरा इसे कोई भी जाति या संप्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक हो, कर सकता है। क्योंकि, फ़िर से, इसमें कोई भगवान या संप्रदाय शामिल नहीं। कोई बाबा या भगत शामिल नहीं। आप खुद शामिल हैं, और कोई नहीं। मैंने यहाँ धर्म कि जगह संप्रदाय शब्द का इस्तेमाल कर रही हूँ। धर्म और संप्रदाय में ज़मीन आसमान का फर्क है। इस फर्क को बताने में मैं अभी नहीं जाऊँगी। नहीं तो दो पेज और लिखना पड़ेगा। विपश्याना का फायदा तो आप तब देखेंगे जब आप इसे खुद करेंगे। क्योंकि सभी इंसानों के व्यक्तिव के हिसाब से उनके अपने व्यक्तिगत फायदे या नुकसान होते हैं। क्योंकि उनके अपने अपने अलग अलग complexes भी होते हैं। मैं सोचती हूँ कि मैंने ये क्यों किया । मैं विपश्याना करने क्यों गई तो ध्यान आता है की इसमें मेरे परिवार के संस्कार मुझसे जुड़े हुये हैं। मेरी माँ , पिता, दादा, दादी, नानी चाचा चाची सभी धर्म निरपेक्ष, बेकार के कर्मकांडो के सख्त विरोधी रहे हैं और अपने स्तर पर उनके लिए जितना बन पड़ता है काम भी किया है। तो, जब मैंने सुना की इसकी क्या खूबियाँ हैं, तब मुझे यह सारी बातें जँची। और लगा की अपनी पूरी ज़िंदगी में से 10 दिन निकाल के जाना और कुछ नया सीखना बुरा नहीं। जहां ये तो पक्का था की फायदा हो न हो नुकसान नहीं होगा, इसलिए गई। ऐसा नहीं की ऊपर लिखी सारी बातें मैं पहली बार पढ़ या सुन रही हूँ। मैं शायद इन सभी विचारों के संपर्क में तब से हूँ जब से मैं माँ के पेट में थी। और जब से बोल्न और समझना सीखा तबसे इन एकता, सर्वधर्म समभाव, असंग्रहा की बातें मई अपने पापा और माँ से जानती आई हूँ। मुझे याद है रात में, पापा, मुझे मेरी दीदी और माँ सब के साथ बैठते और मेरी दीदी कोई एक साहित्य की (गाँधी, विनोबा या जयप्रकाश) पढ़ती और बीच बीच में जहां समझ नहीं आता वहाँ पूछती भी जाती। हाँ, मुझे वो कितना समझ में आता यह याद नहीं पर कान पर से होते हुये दिमाग में कुछ हलचल तो पैदा करता ही होगा।
पगौड़ा में गुरुजी के प्रवचन में वो अंत के समय बार बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि, इस विद्या को दूषित न होने देना, इस विद्या को किसी संप्रदाय के बाड़े में न बांध लेना। देखना, ध्यान देना, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।
अंत में उन्होने भजन गया (भजन शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रही हूँ क्योंकि कोई भी अच्छा गान भजन ही कहलाता है न)। “सबका मंगल हो”, इस भजन इस भजन गाने के साथ मुझे ध्यान आया कि मैं भी उसे मन ही मन दुहरा रही हूँ। थोड़ा अजीब लगा, पर फिर सोचा कि अरे गान ही है न और वह भी सब के मंगल कामना का गान, इसे दुहराने में क्या बुराई है। मेरा मन शुद्ध ही होगा चाहे दूसरों की शुद्धि हो या न हो।
उन्हे और उनकी जीवन संगिनी जो हर कदम पर उनके साथ बराबरी से रही हैं को, कार्यकर्ता आया और ले जाने लगा। वो भजन ग ही रहे थे और मैं उसे दुहरा ही रही थी कि देखा “अरे, वो जा रहे हैं” और अनायास ही मेरी आँखें भर आई। बगल में देखा तो मेरी मित्रा कि भी आंखे ड़बड़बा आई थी। मेरी माँ थोड़ी दूर बैठी पर बैठी आँखों के आँसू पोंछ रही थीं। पूरा पगौड़ा जैसे शांत और स्तब्ध होकर उन्हें जाते हुये देख रहा था। मेरी नज़र मेरी मित्र से मिली और हमने डबडबाई आँखों से क्षण भर के लिए एक दूसरे की तरफ मुस्कुराते हुये देखा और फिर से उन्हे जाते हुये देखने लगे।
मैं सोचती रही, कौन है आज के समय में, कितने लोग हैं जो सच में मन से, अपने रोम रोम से यह चाहते हैं की सबका मंगल हो, सबका कल्याण हो और सबकी स्वस्ति मुक्ति हो !!!


Saturday 18 June 2011

हिंसक और अहिंसक

कुछ दिनों से एक बात मेरे मन में बीच बीच में घूम जाती थी। महात्मा गांधी की किताब हिन्द स्वराज, मैं तीसरी बार पढ़ रही थी। मैं जब भी इस किताब को पढ़ती हूँ, मुझे हर बार कुछ नए प्रश्नों और उनके उत्तरों के गुच्छे मन में हलचल पैदा करते हैं। हिन्द स्वराज पुस्तक पेज नंबर 30, (हिंदुस्तान की दशा – 2 और 3) के प्रशनावलियों ने खास करके 2 के अंतिम प्रश्न ने इस बार मेरे मन को आकर्षित किया। जिन्होने यह किताब पढ़ी है वो जानते हैं की इस किताब का मूल लेखाचित्र, सवाल और जवाब (प्रश्नोत्तर) के तर्ज़ पर लिखा हुआ है।
        हिन्द स्वराज सिर्फ 80 पन्नो की पुस्तक हमें बहुत कुछ सिखाती है

विचार घूमे और सोचने लगी की हिंसा है क्या ? उसकी सीमा क्या है ? क्या यह किसी खास जाति या संप्रदाय को मानने वालों में है ?
यह सवाल मैंने अपने एक दोस्त से किया। उसका उत्तर उतना ही सरल और आसान था जितना की प्रश्न। उसने कहा “जहां तक हिंसक होने की बात है, सबसे ज़्यादा हिंसक तो आदिवासी होते हैं। फिर उन्हे तो हिंसक होने की संज्ञा नहीं मिलती” मुझे यह उत्तर जंचा, पर फिर भी कुछ शंकाएँ मन में थीं। मन दूषित हो रहा था, और उसकी बातों को गलत साबित करने के लिए नए नए बहाने ढूंढ रहा था। इसलिए यही सवाल मैंने अपने पिता से किया। इसपर उन्होने मुझे बहुत ही सरल शब्दों में कुछ मुद्दे बताए जिससे मेरे नाम का भ्रम खत्म हुआ।
ख़ान अब्दुल गफार ख़ान

मुद्दे इस प्रकार थे। उनका कहना था कि इंसान अगर धर्म या परंपरा में पड़ कर हिंसा करता है , जैसे कि बली चढ़ना और हलाल करना, इत्यादि तो वह हिंसक प्रवृत्ति का है ये आप नहीं कह सकते। अगर एक तबका अपनी दिनचर्या में भोजन जुटाने के लिए हिंसा करता है (किसी जानवर को मारता है) तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व हिंसक है यह नहीं कहा जा सकता। देखने में आया है कि कितने ही शाकाहारी जो प्याज़ और लहसुन कि गंध पर भी नाक दबा लेते हैं, स्वभाव में ज़्यादा हिंसक होते हैं। और कितने ही लोग जो शायद सप्ताह में 5 दिन मांसाहार करते होंगे, उनमें हिंसक स्वरूप कम देखने को मिलता है। कुछ लोग कहेंगे यह सच नहीं जो शाकाहारी नहीं उन्हे हिंसा करने में उतनी कठिनाई नहीं होती । हाँ, शाकाहार आपकी मदत करता है। मेरा अनुभव यह कहता है की शाकाहार सिर्फ मनन करने में मदत करता है। उदाहरण भी सामने ही है और हमें उसके लिए इतिहास में ज़्यादा पीछे जाने की भी ज़रूरत नहीं। ख़ान अब्दुल गफ़ार ख़ान इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उनकी कौम पख्तून, खूंखारों में भी खूंखार और बहादुर मानी जाती है। पर जब देश की आज़ादी की बात आई और उनके सत्याग्रह की बात आई तो उनका नाम बहादूरों और अहंसिक सत्याग्रहियों की सुची में सबसे आगे की पंगति में हमेशा रहेगा। कहा जाता है की सत्याग्रह करते हुये, वह सब निडरता से, बिलकुल अड़िग होकर अंग्रेजों का मुक़ाबला करते थे। अंग्रेजों और उनके चेलों की नाक में दम कर देते। वो भी सोचते होंगे “इनके ऊपर कितने भी सितम करो ये इतने निर्भय हो कर बिना हथियार उठाए कैसे लड़ रहे हैं”।
यह तो एक बात हुई।  हिंसा के कई प्रकार हैं। हिंसा शारीरिक भी होती है और मानसिक भी। और सच कहें तो मानसिक, ज़्यादा हानिकारक होता है। इस तरह की हिंसा इंसान आम ज़िंदगी में, प्रतिदिन की दिनचर्या में कई बार करता है। उसकी सीमा बंधनी बहुत ज़रूरी है और वो ज़्यादा चिंताजनक है।
फिर एक संस्कृतिक हिंसा भी है। उदाहरण के तौर पर यूरोप की संस्कृति का मूल ही इस पर आधारित है। अगर इतिहास पर दृष्टि डालें तो रोम का इतिहास साफ़ साफ़ दिखाता है और इस बात की पुष्टि भी करता है। हाँ, और अगर कोई ये कहे की ये तो इतिवृत हुआ, वर्तमान परिस्थिति ऐसी नहीं है। यूरोप प्रगति का एक शानदार नमूना है, और किसी का भी मार्गदर्शक बन सकता है। तो जनाब, यह सरासर उसकी भूल है। वो भूल रहा है की अब वहाँ की संस्कृति सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा की रह गई है। अगर आप गौर करें तो इस तरह के स्वभाव के जड़ में हिंसा ही है। और अगर यह स्वभाव और कुंठित हो जाए तो साफ़ साफ़ उखाड़वाद की नीति जन्म लेती है। क्योंकि तब इंसान आगे बढ्ने के लिए किसी भी हद तक जाता है। आगे बढ्ने के लिए अगर उसे दूसरे के सर पर लात जड़ कर भी आगे निकलना पड़े तो भी उसे कोई गिला नहीं, चाहे दूसरा इसमें कुचला ही क्यों न जाए। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की गांधी जी ने ये भी कहा है की दुनिया भर की सारी संस्कृतियाँ, भारतीय संस्कृति भी हिंसा पर ही आधारित है। हाँ भारतीय संकृति कुछ कम है।  अब यहाँ कृपया कुचलना शब्द को शब्दशः नहीं लिया जाए। कुचलना शब्द का मतलब यहाँ दूसरे को नुकसान पहुंचाना और आगे बढ़ना। इस उखाड़वाद को कुछ लोग छोटे या मोटे रूप में हर रोज़ देखते होंगे। शायद इसके शिकार होते होंगे या इसका इस्तेमाल करते होंगे। हाँ, मुझे पता है। मन ही मन इस बात को नकार भी रहे होंगे की ये क्या कह रही है, प्रतियोगिता तो अच्छी चीज़ होती है, इस तरह आदमी आगे बढ़ने की कोशिश करता है। एक स्वस्थ स्पर्धा किसी का नुकसान नहीं पहुँचती वगैरह वगैरह।  पर लोग यहाँ भूल जाते है की भाई ! हम हैं इंसान और वो भी कलयुग के। यहाँ मैं शर्तिया कह सकती हूँ की यह स्वस्थ स्पर्धा अगर है भी तो बहुत ही कम प्रतिशत में है। स्कूल, कॉलेज और कार्यालयों में आप इसे हर रोज़ देखते होंगे । यहाँ एक और शब्द पर गौर किया जा सकता है “सहकार”। शायद हमारे पूर्वज सहकार शब्द का मतलब नहीं जानते थे या सहकार भी हो सकता है इसे झुठलाते थे इसलिए उन्होने स्वस्थ स्पर्धा शब्द का ईज़ाद किया होगा। देखेंगे तो पाएंगे की स्वस्थ स्पर्धा जहां आई वहाँ सहकार नहीं रह जाता और कुछ दिनों बाद वो अस्वस्थ स्पर्धा का रूप ले लेती है।  इसे झुठलाना बहुत आसान है पर यह तो रहने ही वाला है।
चलिए मेरा व्यक्तिगत उदाहरण ही बताती हूँ। मेरे कॉलेज में यह बात आम थी की फायदा उठाओ और जब सामने वाले को काम आए तो उसे मदत न करो। ज़्यादा यही कोशिश करो की उसे दूसरी जगह से भी सहयता न मिले। इसे समझने में मुझे काफ़ी देर लगी। इस तरीके से मुझे एक प्रकार से लड़ना ही पड़ा, क्योंकि मैं इसे अपनाना नहीं चाहती थी। इसका विकल्प ढूढ़ती रही। और ये नीति कैसे खत्म हो, कम से कम मेरे क्लास में ही इसका प्रयत्न ही किया। पर अंत में निकला यह की ऐसे लोगों से दूर रहने में ही भलाई है। इतना संपर्क में ही रहना ठीक है जिसमें मुझे कोई नुकसान न हो। मेरी योजना तो ठंडे बस्ते में धरी की धरी ही रह गई। एक पारंपरिक स्कूली शिक्षा नहीं मिलने के कारण मेरे मन में प्रतिस्पर्धा की भावना तिल भर भी नहीं थी। हाँ, मैं ये भी नहीं कहती की जो स्कूल जाते हैं वो शैतान का रूप होते हैं। पर उनमें कम प्रतिशत ही देखेंगे आप। और दूसरे को नीचा दिखने की भावना न भी हो तो ईर्षा तो पनपती ही है, और खुद को ही जलती है। बेचारे बच्चे यह समझ भी नहीं पाते होंगे की उनमें इस कुंठित भावना ने जन्म कब और कहाँ ले लिया।
मुझे यह भी पता है की कुछ लोग ये सोच रहे होंगे की ये लड़की क्या अंट शंट लिख रही है। उनमें तो यह सारी बातें नहीं हैं। खैर, ये तो वो खुद ही हैं, जिन्हें यह जानना है।
                                                                        जयप्रकाश

तो अगर यह गलत है। तो इसे बदलने का कोई उपाय है क्या ? क्या हो सकता है यह उपाय ? क्या संभव है की संघर्षवाहिनी के युवाओं का वो प्रचलित शब्द “उखाड़वाद” किसी तरह से बदला जा सके ? आज हम यह नीति अपने ही भाई बंधुओ के साथ अपना रहे हैं। हम भूल रहे हैं की यह नीति जयप्रकाश की नहीं थी। क्या हमेशा इस कहावत को याद दिलाना ज़रूरी है की “ An eye for an eye makes the whole world blind .        

Sunday 5 June 2011

इस मौसम की पहली बारिश :-

इस मौसम की पहली बारिश

आज दोपहर अचानक (2 बजे) मैंने देखा , न जाने कहाँ से काले घनघोर बादल आसमान में धीरे धीरे मेरी ही तरफ आ रहे थे। हवा ज़ोरों से बहने लगी और पांचवें मंज़िल से मैं साफ साफ देख सकती थी की ज़मीन पर रहने वाली धूल , जो सबों के पैरों तले रोंदी जाती है, जैसे मुझसे मुस्कुराते हुए कह रही हो, " देखो ! मेरे ऊंचाई की और घनत्व की तो कोई सीमा ही नहीं । मेरा दोस्त तूफान तुम सबों के घरों मे मुझे ले जाएगा , इसलिए बेहतर है , की तुम अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर लो "।
5
मिनट भी नहीं बीता होगा की दोपहर के 2 बजे  मुझे बिजली जलाने की ज़रूरत महसूस हुई , और मैंने कमरे के बल्ब का बटन दबा दिया। दूसरे कमरे से पापा की आवाज़ आई "टीना , कल्पना देखो लगता है बारिश का मौसम शुरू हो गया "। मैंने सोचा "2 जून ! " थोड़ा अजीब लगा । बचपन में जब हम बारिश का इंतज़ार करते तो बारिश जुलाई के महीने में आती।
धीरे धीरे बारिश की बूंदें टपकना शुरू हुई। अब तक वो छोटी छोटी प्यारी लग रही थी। मैं खिड़की से अपना हाथ बाहर निकाले उन्हे  महसूस कर रही थी। उनकी ठंडक मुझे बहुत अच्छी लगती और साथ  ही जब धरती की सौंधी सौंधी महक आई, तो फिर क्या कहना। थोड़ी देर, मैं इन्हीं छोटी बूंदों का मज़ा ले रही थी कि अचानक पता नहीं कहा से एक बड़ी और मोटी बूंद ने ज़ोर से मेरी हथेली कि कानी  उंगली पर अपना वार किया, जैसे कह रही हो "अपना हाथ अंदर ले अब मैं आ  रही हूँ  "। मैंने उसकी बात मानते हुये अपना हाथ अंदर खींच लिया पर खिड़की बंद करने को मन  नहीं माना। यह दृष्य मैं ठीक दो साल बाद देख रही थी। उन बड़ी बूंदों ने धीरे धीरे घनघोर बारिश का रूप ले लिया। दूर कि पहाड़ी जो मैं अपने पंचवे मंज़िल के कमरे से देखती थी वो अब मुझे धुंदली दिखाई दे रही थी। बारिश कि लहरें आकाश में कभी दायें से बाएँ और कभी बाएँ से दायें जैसे नाच सी रही थीं। जैसे कह रही हो " मुझे तो बड़ा मज़ा आ रहा है। तुम भी आओ "।
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपना चेहरा खिड़की के पास लाया और हल्की बारिश कि बूंदों ने मेरे चेहरे को छूआ जैसे मेरे साथ बतियाना (बात करना) चाह रही हो, कह रही हो "पिछली बार जब तुम यहाँ थी, मेरा मज़ा नहीं ले पाई थी , बीमार थी , और सारा समय अस्पताल के कमरे मे ही बिताया था तुमने । पर इस बार देखो मैं पहले आई हूँ , ताकि जाने से पहले तुम मुझे देख लो"।

मैं बारिश कि बूंदों का मज़ा ले ही रही थी कि पापा ने चाय पीने की इच्छा ज़हीर कि । देखा तो चीनी और चाय दोनों नदारद थे। नीचे जाना था , किराने कि दुकान से चीनी व चाय लानी थी। मैंने पैसे, और ,सौभाग्य से अपना मोबाइल भी ले लिया और लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट आई और मैं उसमें नीचे जाने के लिए g का बटन भी दबाया, और कुछ सोचते हुये नीचे जाने लगी , कि तभी अचानक "अरे ये क्या!  बिजली गुल " । मैं शायद दूसरे और तीसरे मंज़िल के ठीक बीचों बीच अटकी हुई थी। देखा अब क्या करूँ बारिश आने के कारण बिजली कट  गई थी और मैं मेरे सिर से पैर तक बड़ी अजीब जगह खड़ी थी। लिफ्ट  को देखा तो उस अंधेरे में मुझे ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं दिया, सिवाय एक कोने में पान की पीकों का  गुच्छा मुझे चेतावनी देते हुये दिखा " देखो इस तरफ मत टेकना, यहाँ मैं हूँ"। वैसे ये लिफ्ट तो कहीं से भी  टिकने के काबिल नहीं थी। बस, इस लिफ्ट का बीच का केंद्र बिन्दु ढूंढो और वहीं सावधान कि मुद्रा लिए खड़े रहो।

अचानक याद आया " अरे! मेरे पास तो मोबाइल फोन है"। फिर क्या था झट से पापा को फोन किया और बताया कि मैं बीच में अटक गई हूँ। पापा ने बस इतना भर पूछा "डर तो नहीं लग रहा न " मैंने नहीं कहा  और कहा "थोड़ी देर में बिजली तो आ ही जाएगी", और मोबाइल रख दिया। फिर सोचा दूसरे दोस्तों को फोन करूँ। और इत्तेफाक ऐसा कि दीदी से ले कर शिल्पी और 2-3 दोस्तों में से किसी का फोन नहीं लगा देखा ," लै!  मोबाइल में तो टावर ही नहीं है "। सोच रही थी कि टावर  कैसे आए कि बाहर कि बिजली कि आवाज़ ने मेरा ध्यान बाहर हो रही बारिश पर  आकर्षित किया, मेरे सोचने कि क्षृंखला झट से मेरे बचपन में चली गई। याद आया कि आशियाने में (मेरे गाँव का घर) जब भी बारिश का मौसम आता तो हम सब बारिश में दरवाजे पर बैठे (दरवाज़ा, गाँव में बैठक की जगह को कहते है, जो अक्सर घर के बाहर होता है) हम चाय पीते। मम्मी तरह तरह के गरमागरम व्यंजन बना लाती और हम बड़े मज़े से बारिश का और प्रकृति मज़ा लेते हुये खाते रहते। सामने का दृश्य तो बड़ी कठिनाई से दिखाई देता। सामने कि पूरी जगह देखते ही देखते  कुछ ही देर में पानी से भर जाता, और मैं और दीदी उस बारिश में खूब खेलते। अक्सर कोई नारियल का पेड़ , जो हमारे दरवाजे पर  चारों तरफ लगे हैं कोई न कोई नारियल का पत्ता गिरा देता। पापा उसे ले आते और मुझे  और दीदी को उसपर बैठने को कहते। नारियल का पत्ता चौड़ाई में और लंबाई में काफ़ी बड़ा होता है, और कम से कम दो छोटे बच्चे, छह और तेरह साल के, आराम से उसपर बैठ सकते हैं। हम उसपर बड़े मज़े से बैठते और पापा उसे नाव कि तरह पानी में खींचते। पूरी जगह में चार चार इंच पानी भरे होने के कारण हमारी नाव आराम से आगे बढ़ती और उसके साथ हम नाविक भी। हमें बड़ा मज़ा आता, लगता नाव कि सैर कर रहे हैं, सिर्फ खेवैया पापा हैं।

बारिश खत्म होने पर हम कागज़ कि नाव बनाते और उसे पानी में छोड़ते उसपर कभी कोई चींटी या कभी कोई कीड़ा रख देते, और नाव का नाम भी रखते। जैसे वो नाव बड़ी लंबी  समुद्री यात्रा पर जा रही हो, और कोई खज़ाना वजना है जिसकी खोज करनी है। 
    एक बार तो एक नाव का नाम दीदी ने यूनिकॉर्न ही रख दिया था। यूनिकॉर्न टिनटिन कॉमिक्स के एक अंक में आता है। जिसमे टिनटिन , कैप्टन और उनके कुछ साथी खजाने कि खोज में समुद्री यात्रा पर जाते हैं। एक बार तो मैंने एक छोटा सा मेंढक , जो करीब मेरी उंगली के चौथाई भाग जितना बड़ा ही होगा, उसे पकड़ा और सबकी नज़रों से छुपा कर उसे नाव  पर रख दिया। बेचारा, सोचता होगा, "पता नहीं ये कहा से आ गई है और मुझे इस अजीब सी  चीज़ पर रख दिया है"। मुझे याद है, वो मेंढक थोड़ा चिपचिपा सा था पर ये देखने की उत्सुकता में की वो उस नाव पर कैसा लगेगा , मैंने उस मेंढक को पकड़ ही लिया था। ऐसी धुंदली सी याद है मुझे। इन सब चीजों में मुझे बड़ा मज़ा आता। मेंढक पकड़ना, पिल्लू छूना इत्यादि। और दीदी को उतना ही गंदा लगता। इसलिए मैंने ये काम दीदी से छुपा के किया था। डर था , दीदी ने देख लिया तो डांट तो पड़ेगी ही शायद चपत भी लगे। ये सोचने की श्रुंखला थोड़ी और आगे बढ़ी और मुझे याद आया की काफ़ी सालों बाद एक बार ऐसा आया की संयोग से मैं और दीदी फिर से बारिश के मौसम में रोसड़ा में ही थे और खूब ज़ोरों की बारिश हो रही थी। फिर उसी नारियल के एक पेड़ ने अपना एक बड़ा पत्ता गिराया जैसे कह रहा हो " लो, बहुत दिनों बाद मेरी सवारी का फिर से मज़ा लो"। पर हम अब उतने छोटे नहीं थे की दोनों  उस पत्ते पर बैठ सकें। दीदी ने मुझे as usual  बच्चा मानते हुये कहा की तुम बैठो और  मैं खींचती हूँ। और मैं , सच मे बैठ भी गई। दीदी ने जैसे तैसे थोड़ी दूर खींचा और फिर मेरी बारी आई। दीदी बैठी और मैंने भी बड़ी मेहनत से नाव थोड़ी आगे बढ़ाई। मैंने दीदी  की तरफ देखा तो उसके चेहरे पर जैसे लिखा था "मेरी छोटी और प्यारी बहना, अब शायद हम इतने बच्चे नहीं रहे  कि इसपर बैठ सके और दूसरा कोई इस नाव को खे सके"। हम फिर भी उस बारिश मे हम खूब खेले थे नाव बनाई, और ज़ोरों की बारिश होने के बावजूद एक दूसरे पर पानी भी उड़ाया। आँगन में चौकी  पर खड़े हो कर और गीले हो जाने कि कोशिश की । मम्मी को बुलाया ,पर वो कहाँ आने वाली थीं। बाहर देखा तो कुछ गाँव की लड़कियां खड़ी हमें दूर के ट्रेनिंग हॉल से देख रही थी और हंस रही थीं। जैसे वो भी हममे शामिल होना चाहती हों। उस दिन आशियाने में लड़कियों का कोई शिविर था । हम उन्हे भी खींच कर बाहर लाये। मुझे याद है हम बारिश के रुकने पर ही वापस आए थे।

इन यादों के बीच अचानक मेरा ध्यान टूटा और मैंने देखा की बिजली आ गई है और मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ जा रही हूँ। मेरा खयाल वहीं रुक गया। पता नहीं मैं कितनी देर वैसे ही सावधान की मुद्रा में खड़ी  अपने पिछले दिनों को टटोल रही थी। इस मौसम की पहली बारिश ने मुझे पता नहीं कहाँ कहाँ की सैर कराई। मैं सोचते हुये की पता नहीं आशियाने की वो बारिश अब कब नसीब होगी लिफ्ट का दरवाज़ा खोला और किराने की दुकान की तरफ अपना कदम बड़ाया।

आज तीन जून को जब मैं लिखने बैठी हूँ। आज फिर तूफान ज़ोरों की बारिश लिए आया है। अब जब मेरे लिखने का अंत है, हल्की बारिश अब भी हो रही है , शाम का समय है और सूरज बस डूबने ही वाला है। दूर कहीं कुछ मेंढक मस्ती में टर्रा रहे हैं , और खूब खुश हो रहे है। कुछ पक्षियों के चहचहाने की  भी आवाज़ आ रही है, शायद  मेरी खिड़की  के पास ही बैठी है। वो भी खुशी से इस मौसम की  पहली बारिश का स्वागत कर रहे हैं।




                                                              मेरा आशियाना