Friday, 28 March 2014

यह सब ठीक है



दूर क्षितिज में टूटती सोने की थाल को देख,
मिट्टी के बने रास्ते पर छितराए हरी घास को देख,
ओस की बूंदों पर पड़ती सूरज की चमकीली रौशनी को देख,
और साथ ही कचनार के करीने से गिरे मीठे फूलों को देख,
जैसे कमबख्त ज़िंदगी भी अब तक बिलकुल कुछ ऐसी ही है,
टूटती, छितराती पर चमकीले करीने से बनने की कोशिश करती आई है।
पर न ही अबतक इस सोने की टूटती थाल को पेंदा ही मिल पाया है,
न ही उस छितराई हरीभरी घास को एक पगडंडी ही मिल पाई है,
उन ओस की बूंदों को भी अबतक सूरज की गर्मी का इंतज़ार है,
और कचनार के फूल अब भी अपनी मिठास भरी महक को बांधे हैं,
पर ये सब ठीक है, गलत नहीं है,
टूटना, छितराना, ठंडा रहना या की बंधा रहना,
क्योंकि शायद समय नहीं आया है।
शायद सूरज ठहरना नहीं चाहता और हरी घास को पगडंडी की हसरत नहीं,
क्योंकि बूंदों का स्वभाव भी ठंडा रहना ही है,
और कचनार अभी खिल ही रहा है।
तो यह सब ठीक है,
क्योंकि यही ज़िंदगी है। 

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