मेरे हाथों से अभी मेहंदी का
रंग उतारा भी नहीं है और मैंने निश्चय किया कि मैं ये खास लेख लिखूँगी। नहीं, ये मेरी शादी की मेहंदी
नहीं है और मैं इसकी शुक्रगुजार हूँ। यह मैं आपको अंत में बताऊँगी कि मैं
शुक्रगुजार क्यों हूँ।
छ: महीने पहले कि बात है मेरी
दोस्त का फोन आया “भैया की शादी है, तुम उस समय कहाँ रहोगी? भारत में या फिर
इंग्लैंड में?”। मैंने बताया कि मैं उस समय भारत में ही रहूँगी और नहीं
भी रही तो आ जाऊँगी। तो जुलाई में मेरा उसके घर जाना तय हुआ। मुझसे कई गुना
तीव्रता के साथ मेरी दोस्त इस शादी की तैयारी करने लगी। स्वाभाविक भी है ये उसके
घर की पहली शादी थी।
मैं पटना आई, कुछ दिन अपने गाँव में
बिताया। बीच में हमारी कई बार बातचीत होती रहती। तैयारी कैसी चल रही है इस बारे
में जानकारी विस्तार से आदान प्रदान होती। क्या खरीदा, किस रंग का खरीदा, कितने का खरीदा? तुम किस रंग का खरीदो
इसके सुझाव भी मिलते।
समय बीता और जुलाई की एक
प्यारी सुबह, तड़के ही छ: बजे की ट्रेन से मैं अपने मंज़िल की ओर चल पड़ी।
रास्ते में झाल मूढ़ी खाते और चाय पीते मैं आधे रास्ते कब पहुंची पता ही नहीं चला।
पारसनाथ स्टेशन आने पर मैंने दुबारा मेरी मित्र को फोन लगाया। और पूछा की “भाई ये स्टेशन आ गया है अब कितनी देर है यहा से”।
उसने कहा “ओह! तुम वहाँ पहुँच गई तब तो तुम हमारे यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं हो बस
कुछ घंटे, और तुम्हें पता है ये जगह जैनों का बड़ा प्रसिद्ध तीर्थ
स्थान है। काफी सारों ने यहाँ आकर मुक्ति पाई है इसलिए इस जगह का बड़ा नाम है”। जब
मंज़िल पर पहुंची तब मेरी मित्र और होने वाली भाभी दोनों मुझे लेने आए थे। बड़ा
अच्छा लगा। ज़्यादातर शादियों में दुल्हन का घर से निकलना तक दुश्वार रहता है। शादी
की तैयारियों में हम इतने व्यस्त हो गए कि दो दिन तक हमें अगर साथ बिताने का समय
मिला तो वो भी कार में। इसे उठाओ और उसे पहुंचाओ में ही सारा समय जाता। बीच बीच
में हम बातें करते जाते और उसके बीच बीच में गालियाँ भी निकालते जाते “अरे गधे
चलना नहीं आता है क्या?” या फिर “ देखो, उल्लू कैसे खड़ा है बीच सड़क पर, बेशरम”। मुझे याद आया
पटना की ट्रेफिक भी ऐसी ही अविश्वासनीय है। कब, कौन कहाँ से उछलते हुये
तुम्हारे सामने आ जाए बिलकुल अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता।
अगले दिन तिलक था वैसे ही
जैसे हर शादी में होता है। तिलक देने के साथ दहेज देने की भी कुप्रथा है। बहुत से
लोगों को आश्चर्य हुआ “अररे, arrange
marriage में लड़के ने दहेज नहीं लिया, बड़ी अजीब बात है” लोगों
को बात पची नहीं। वैसे भी चाहे प्रथा हो या कुप्रथा समाज में कुछ अलग होना लोगों
को गंवारा नहीं होता। मैंने अपने बड़ों से पूछा “तिलक कि कुछ खास बातें बताइये”। सकारात्मक बातें अगर बताई
जाएँ तो ये कहा जा सकता है कि तिलक में शादी करने वाले जोड़े को जो अपनी नई ज़िंदगी
साथ बिताने जा रहा हैं को माता पिता आशीर्वाद देते हैं और साथ ही कुछ ज़रूरत का
समान और पैसे इत्यादि देते हैं। पर यही जब दहेज जैसी कुप्रथा में बदल जाए जहां लिंग
(लड़के और लड़की) के नाम पर तो भेद होता ही है साथ ही पैसे को सबसे ऊपर रखा जाता है
तब वो तिलक नामक प्रथा एक कुप्रथा बन जाती है। इस शादी में दहेज नामक प्रथा का घोर
विरोध किया गया था।
संगीत का दिन भी बड़े मज़े में
बीता दोनों ही परिवार संगीत में शामिल हुये और एक दूसरे को और जानने समझने कि
कोशिश भी की। और तब आया शादी का दिन। मैं यहाँ आपको ये बता दूँ की ये पहली शादी थी
जिसमें मैं शुरू से याने की तिलक के एक दिन पहले से सत्यनारायन पूजा के दिन तक
सारा समय एक परिवार की तरह बिताया। सारी तैयारियों में पूरा सहयोग देने की कोशिश
कि और सारी विधियों को गौर से देखा। कुछ अच्छी बातें थी तो कुछ निरर्थक, नाकाम और खर्चीली बेकाम
की परम्पराएँ।
शादी का दिन बड़े मज़े का होता
है। हमारे भाई की शादी है इसलिए हम खूब सजते धजते हैं। महंगे चमकीले और रंगबिरंगे
कपड़े पहनते हैं। दुलहान 50 हज़ार का शादी का जोड़ा खरीदती है। गहनों का तो कपड़ों से
ज़्यादा महंगा होना स्वाभाविक है। दुल्हन के 4 से 5 दिन VLCC नामक शृंगारगृह
(Beauty parlor ) में अपने आप को सुंदर बनाने में बीतते हैं (बर्बाद होते
हैं)। दूसरों की अपेक्षा रहती है की दुल्हन सुंदर दिखनी ही चाहिए। दुल्हन की खुद
भी यही चाहत होती है की वो खूबसूरत दिखे। दुल्हन की सुंदरता से एक प्रश्न उठता है
जो मेरे माता पिता बचपन से मुझे समझना चाहते थे और बौद्धिक स्तर पर थोड़ी बहुत समझ
में भी आती थी। पर अब जाकर महसूस की। सोचा, ऐसा क्यों है की
स्त्रियाँ पुरुषों से ज़्यादा सजती है, ज़्यादा जेवर पहनती है? आपने कभी सोचा है? मेरा खयाल है की समाज
जिसमें पास पड़ोस, रिश्तेदार, दोस्त, फिल्में, और नौकरी सभी शामिल हैं का दबाव या की एक तरह की पुरुषों
को प्रसन्न करने की मानसिक कमजोरी रहने के कारण इस तरह का व्यवहार रहता है। आप
जैसे हैं वैसे ही रहना, कोई लेप कोई ऊपरी आवरण नहीं लगाना, दूसरे के सामने सुंदर
दिखने की कोशिश न करना, आत्मविश्वास से आता है। सुंदरता के आपके मायने क्या हैं और
जहां सारी दुनिया ही स्त्री को एक दुइयम दर्जे का मानती हों। न सिर्फ पुरुष बल्कि
स्त्री खुद अपने को एक स्वतंत्र एकाई नहीं दूसरे पर का बोझ मानती हो तो वैसे वर्ण
में आत्मविश्वास का कम होना स्वाभाविक है। इसे आप अपने ऊपर न लें। दुनिया में
करोड़ों लोग हैं। वैसे ये तो आपके खुद के परखने की बात हैं, मैं क्या बोलूँ।
मुझे ये पता नहीं और जानने की
इच्छा भी नहीं की गहने पहनने और साज शृंगार की प्रथा कब से और कहाँ शुरू हुई, उसका चिकित्सकीय फायदा क्या
है। मुझे समझ में बस इतना आता है की यह एक बहाना है खुद की कमजोरियों को खूबसूरती
की ढाल में छुपा लेने का। क्योंकि उनका सामना करना मुश्किल है और झुठला देना आसान।
आप यह कह सकते हैं “ऐसा नहीं है, मैं ये खुद के लिए करती हूँ” या फिर ये “तुम नहीं करती हो
क्या” या कि “ये पुरानी परंपरा है, हजारों साल की परंपरा गलत नहीं हो सकती” बल्कि कुछ लोगों
ने तो ये भी कह दिया “इसके चिकित्सकीय फायदे है जब आप कान में छेद करते हैं तो
वहाँ की नसों में अलग तरह का प्रभाव पड़ता” वगैरह – वगैरह। मुझे तो बस इतना दिखाई देता
है कि मानव जाती के लिए ये क्या कम था की उन्होने गाय और बैलों के नाक कान छेदे, उनसे होड़ करने की हमें
क्या ज़रूरत पड़ी। खैर इस होड़ में मैं भी शामिल हूँ। मेरे भी कान में मैंने एक
हैदराबादी शाम को तय किया कि चलो हैदराबाद आई हूँ तो यहाँ से कान छिदवाकर ही वापस
जाऊँगी। बस फर्क इतना था कि ये मानवी काम मैंने 22 साल की उम्र में किया और इसका
फैसले में मेरे माता पिता का कोई हाथ नहीं था। मेरा ये भी खयाल है की इन सारी
चीजों से व्यक्ति विशेष को कोई खास लाभ नहीं होता समय की बरबादी सो अलग और ये बात
और पुष्ट होती है जब इस बात का एहसास हो कि करोड़ों लोग जहां न सिर्फ गहनों के अभाव
में हैं बल्कि रोज़मर्रा की ज़रूरतों, ज़िंदगी में काम आने वाली चीजों का भी अभाव हो। वहाँ ये
शर्मनाक है कि कुछ लोग ऐसे बेकाम की चीजों में अपना समय और अपनी काबीलीयत नष्ट कर
रहे हैं। सारे साधनों का भरपूर मात्रा में उपयोग करते हुये भी बस वहीं तक सीमित
हैं।
किसी ने कहा है “सोने की ईटों
को दरिया में फेंकना और स्त्रियॉं के लिए गहने बनवाना लगभग एक जैसी बातें हैं”।
यहाँ लगभग शब्द का उपयोग इसलिए किया गया है क्योंकि गहनों को बेच कर आप कभी कभार
उसका फायदा उठा सकते हैं।
शादी की रस्म शुरू होती है और
लड़का मंडप में बैठा है लड़की के माता पिता मंडप में लड़के के सामने बैठे हैं और
कन्यादान की खास विधि शुरू है। जैसा कि हर शादी में होता है। अभी कुछ ही दिन हुये
कि मैंने सोचा था “कन्यादान” कितनी अजीब संज्ञा दी गई है इस रस्म को। मैंने सोचा
सच इसके नाम जैसा ही इसका मतलब नहीं होगा। मैंने अपने परिवार के बड़ों से बात की। पता
करने की कोशिश की कि जो मैं सोच रही हूँ वो गलत तो नहीं। पर मुझे थोड़ा सा आश्चर्य
हुआ (थोड़ा इसलिए क्योंकि मैं यही अपेक्षा भी कर रही थी) कन्यादान जैसा नाम वैसी ही
प्रथा भी है। यहाँ आप कन्या को दान में एक के पास से दूसरे परिवार को देते हैं।
दान शब्द मैंने पहले भी सुना था जैसे की ‘भूदान’ ‘ग्रामदान’ अथवा सिर्फ दान। बड़ी
श्रध्दा थी इनके प्रति इनके पीछे के रचनात्मक काम के बारे में भी बड़ा विश्वास रहा
है, पर
दान शब्द का इतना ठोस और आहत करनेवाला रूप पहले ध्यान नहीं आया था, कितना अजीब
है। समाज का एकदम पूरक रूप देखने को मिलता है। वही समाज जो दूसरों की मदत करने को
इतना तत्पर रहता है की अपनी ज़मीन जैसी मूल्यवान चीज़ भी दान में देने को तैयार हो
जाता है। एक संत के कहने पर अपना जीवन तक दान में दे देता है। वहीं दूसरी ओर अपने
घर की बेटी को या अपने घर की बहू को एक स्वतंत्र एकाई न समझना एक वस्तु जैसा पेश
करना और दान में दे देता है। थोड़े आश्चर्य के साथ बड़ा दुख होता है।
अररे! मैं एक खास, सबसे महत्वपूर्ण, सबकी मनपसंद और सबसे
बेकाम की एक प्रथा के बारे में तो भूल ही गई थी। शादी की शुरुआत होती है बैंड, बाजा और बारात से। मेरे
परिवार में इतनी सारी शादियाँ हुई हैं पर मैं काफी कम बरातों में शामिल हुई हूँ। शायद
ये भी कारण है की अबतक इसकी निरर्थकता का आभास नहीं हुआ था।
पहाड़ी जगहों की गर्मी इतनी
नहीं होती की परेशान कर दे इसलिए हम सब जश्न मना रहे थे। नाच गाना बैंड बाजे का
शोर और खूब सारी रौशनी। अचानक उस रौशनी के ठीक नीचे जहां से अंधेरा शुरू होता है
वहाँ मुझे कुछ जोड़ी आँखों की दिखाई दी। एक क्षण ऐसा लगा जैसे सारी आँखें मुझे ही
घूर रही हों। उस चकाचौंध करदेने वाली रौशनी और कान फाडू बेसुरे बैंड और बाजे की
आवाज़ में मेरा पहले ध्यान ही नहीं गया था। शायद आँखों को चमकाने वाली रोशनी में
अंधेरे को देखना समझना मुमकिन नहीं होता। ठीक वैसे ही जैसे की दीये के ऊपर की
रोशनी को दीये के नीचे का अंधेरा देखना मुमकिन नहीं हो पता। मेरे साथ भी यही हुआ।
जहां से रोशनी निकाल रही थी
ठीक उसके नीचे के काले अंधेरे में खड़े छोटे कद की औरतें और बच्चों ने उन रोशनियों
का बेड़ा उठाए हुये था। ललसाई सी आंखो से हमें देख रहे थे। मैं ठिठक गई (इसलिए भी
की बारात आगे बढ्ने का नाम ही नहीं ले रही थी)। उन्हे ध्यान से देखा। छोटा कद, भूरा रंग, पसीने से लदी सादे
कपड़ों में खड़ी जैसे मुझे उदासीनता की ओर ले जाने लगी। शर्म के तिलस्म में जादूगरनीयों
की तरह फँसाने लगीं (बिलकुल हातिम ताई के
कहानी जैसी)। वे आँखें जैसे मुझे ही दया के भाव से देख रही हों। कह रही हों “ये
क्या कर रही हो, चलो आओ, खड़ी क्या हो। देखो दुनिया सिर्फ मेरे सिर पर रखे, मेरे ही मेहनत के
चकचौंद और चमक दमक का नतीजा नहीं है। इसकी सच्चाई मेरे साथ का अंधेरा भी है जो
मेरे चारों ओर घना और घना होता जा रहा है। यह तिलस्म मेरा नहीं तुम्हारे कर्मों का
फल है। ये काला जादू मुझे ही नहीं तुम्हें भी काला कर देगा। तुमपर हावी हो उसके
पहले ही इसे खत्म कर दो। उसे खत्म करने की मणी भी मैं तुम्हें देती हूँ। मुझे इस
अंधेरे से निकालने के बाद तुम्हारे सामने एक दरवाजा खुलेगा। वही दरवाजा तुम्हें
बेमतलबी तिलस्म से बाहर निकालेगा।“ उस दिन चकाचौंध करदेने वाली उस रौशनी के काले
अंधेरे ने मुझे रौशनी दिखा दी।
इस चमक को तवज्जो देने वाले
समाज में जहां यह कहा जाता हो की उसकी बेटी की शादी में इतना दहेज दिया गया और 32 तरह के
पकवान बने थे। वाह वाह! बेचारे बाप की हालत खराब की जाती हो। ये समझना की सारी
बातें बस एक तिलस्म भर हैं और ये तिलस्म इतना प्यारा लगने लगता है जबकि इसका
अंदाज़ा भी है कि ये तिलस्म एक दिन खत्म हो जाएगा और उसका विजेता भी वही होगा जो उस
तिलस्म के नीयमों की परवाह नहीं करेगा।
इस चमक दमक के बीच थोड़ी याद
ताज़ा करते हैं। आपको याद होगा एक बड़े नामी अभिनेता ने अभी कुछ ही महीने पहले एक TV शो का
संचालन करते हुये सादगी से शादी करने कि सलाह दी। बड़ी अच्छी सलाह लगी वहीं इस शो
के करीब तीन दशक पहले भी कुछ लोगों ने सादगी से शादी करने की सलाह खुद सादगी से
शादी करके दी। रस्मों रिवाज से ज़्यादा महत्व उन्होने आपसी विश्वास और प्यार को
दिया। बैंड बाजा और बारात को त्याग समाज के खिलाफ तो नहीं पर समाज की खराबियों को
बदलने का प्रयास किया। बड़ों के पूछने पर कि तुम ऐसा क्यों करना चाहते हो अपने तर्क
भी दिये। इसका श्रेय बड़ों को भी जाता था कि उन्होने अपने बच्चों की बातें सुनी और
समझा कि ये सारी बातें हवा में नहीं हो रही है। इसके पीछे सोची समझी विचारधारा है।
मैं ये सोचती रही और देखती
रही। मेरे आंखो के सामने धुंधलाहट सी आ गई शायद आंसूँ थे। तभी बारात आगे बढ़ी और
मैं भी। उस रात मेरा दिल बड़े दिनों बाद फिर भारी लगा। सारी रात मैं उसी चमकीले आवरण में रही। सोचती
रही,
क्या मेरे अंदर इतनी हिम्मत और ताकत है कि मैं उसे उसी अंधेरे में घुस कर बाहर
नीकालने की कोशिश कर सकूँ। शायद नहीं। पर कोशिश करने में क्या हर्ज़ है। अपने दायरे
में रहकर करना थोड़ा आसान हो जाएगा शायद।
तो मैं खुश हूँ कि मेरे
हाथों की मेहंदी मेरी शादी कि नहीं। पर मुझे समझाती है कि सोच समझ कर ये कदम उठाना
जब अगली बार खुद के लिए मेहंदी लगाना तो देख समझ लेना की तुम्हारा साथी दीये के
ऊपर की रोशनी को तवज्जो देता या की उसके नीचे के अंधेरे को भी।
No comments:
Post a Comment