Saturday, 16 July 2011

छुक छुक गाड़ी

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि” ये जुमला इन्सानों पर एकदम सही बैठता है। और बेचारे जानवरों को उसका फल हमारे साथ ही भुगतना पड़ता है। हमारी करनी का फल उन्हें भी भोगना पड़ रहा है। मेरे खयाल से इस बुद्धि कि एक उपज है हमारे अपने ही 20वीं सदी की जनमाई गई ट्रेन या की रेलगाड़ी।

हिन्द स्वराज पन्ना नं॰ – 39 हिंदुस्तान की दशा (रेल गाड़ी ) में महात्मा गांधी ने अपना मत साफ दर्शाया है। उन्होने इसके नुकसान भी गिनाए हैं। उन्होने तीन चीजों को भारत के लिए नुकसानदेह बताया है। डॉक्टर, वकील और ट्रेन। डॉक्टर और वकील कि सामाजिक व्यवस्था के नकारात्मक पहलू तो समझ में आते हैं, समझ आता है कि वह नुकसानदेह क्यों है। उनके स्वार्थी होने का नतीजा समाज को भुगतना पड़ता है और अब तो वह एक गंभीर रूप लेता जा रहा है। डॉक्टरों को तो मैं खुद भी भुगत चुकी हूँ। मेरे पापा की बीमारी के समय मेरी मम्मी और मामा की डॉक्टरी ही काम आई । अधकचरा ज्ञान रखने वाले डॉक्टरों की तो जैसे फ़ौज सी खड़ी हो गई है आम आदमी के सामने। और जैसे वह फ़ौज कह रही हो “आऔ, तुम्हें कहा आई॰ वी॰ लगाऊँ ”।
वकील जो नुकसान करते है वह भी साफ दिखता है। स्वार्थी वकील अगर अनैतिक वकालत करने पर उतारू हो जाएँ तो समाज के बुरे तत्वो का बढ़ना सुगम हो जाता है। महात्मा गांधी खुद एक वकील थे इसलिए वह यह जो बात कहते हैं और तर्क देते है वो मन को जंचता है।

पर “रेलगाड़ी ” ! रेल गाड़ी क्यों ? ये बात कुछ लोगों को हजम नहीं हो सकती। लग सकता है की भाई यह तो भारत को जोड़ कर रखने का एक बड़ा माध्यम है इसी के कारण तो भारत अखंड रहा और है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का पहला कदम है, इत्यादि। मुझे भी यही लगा, और उनके तर्कों को मन ने नकारा तो नहीं पर बहाने ढूंढ़ना शुरू किया। सोचा “ बात तो बड़े पते की है पर PRACTICAL नहीं है”।

छूक छूक गाड़ी में बचपन के वो अनगिनत प्रवास याद आ गए। बचपन से ले कर अब तक की वो असंख्य यात्राएं जो मैंने अपने परिवार, दोस्तों या फिर अकेले की थी बड़ी लुभावनी लगती हैं । नागपुर जाते वक्त वर्धा स्टेशन के दाल के पकौड़े। ठंड में झाँसी पर सुबह 3 बजे की कुल्हड़ वाली सौंधी महक की चाय। पंजाब के खेतों में नील गाय की झलकियाँ। शिमला के toy train की वो सैर, यह सारी बड़ी लुभावनी यादें हैं। तो फिर ऐसा क्यों ? ऐसा क्या है जो उन्हें ये कहने पर मजबूर करता है कि डॉक्टर और वकील के अलावा भारत कि इस स्थिति कि जिम्मेदार ट्रेन भी है।


आगे पढ़ो तो बात साफ होती है। जँचती हैं, तर्कसंगत लगतीं हैं। चार बातें ध्यान में आतीं हैं।

पहली बात जो ध्यान में आई वो थीं कि भारत की एकता और अखंडता के पीछे किसी जीवन विहीन लोहे के ढांचे का या फिर किसी नैतिकता विहीन सामराज्य का हाथ नहीं बल्कि भारत सैकड़ों सालों से इसकी संस्कृतिक मान्यताओं के कारण जुड़ा हुआ है। भारत को जोड़ने के लिए किसी एक राजा या साम्राज्य की ज़रूरत नहीं।
दूसरे, प्रकृतिक विपदाओं (बीमारियों का ) का तेज़ी से फैलने में ट्रेन कहीं न कहीं सबसे बड़ा साधन रही है। यह तो आप विदेश जाते समय भी देखते हैं कि वो कितनी सावधानी बरतते हैं जब कोई नया उनके देश में प्रवेश ले रहा होता है।

और फिर, असामाजिक तत्वों का देश और दुनिया में फैलना और फैलाना और भी आसान हो जाता है।


पर सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे लगती है वह है इसके कारण शुरू हुआ नुकसान किसानों को भी झेलना पड़ता है। अकाल कि संभावनाएं बढ़ जाती हैं। किसान लापरवाह हो, लालच में दूर जा कर भी जहां बाज़ार महँगा है वहाँ अपना अनाज बेच आते हैं जिस कारण जहां बाज़ार सस्ता है उस इलाके में अकाल कि नौबत आ जाती है।
मेरे खयाल से हमने वो हर संभव चीज़ कर दी है और प्रकृति के नीयमों के खिलाफ हर क्षेत्र में जा चुके हैं जिससे उसे नुकसान पहुंचे। बांध बनाने से ले कर परमाणु बम के ईजाद तक। और, इस मामले में भी हमने अपनी रफ्तार सामान्य से कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी है। यहाँ तक कि अब तो हमें हवाई यात्रा भी धीमी लगती है। सबसे तेज़ चलो कि हम दुनिया में सबके साथ नहीं सबसे आगे बढ़ जाएँ कि दुनिया को कब्जे में ही कर लें। ये असामान्य तेज़ी इन्हीं भावनाओं के कारण पनपी है। और इसी मानसिकता से लाया गया थी ट्रेन भारत भी। प्रकृति के दिये गुणों से हमे संतुष्टि नहीं। इस इंसान रूपी जानवर को “और ज़्यादा” की लालसा है। “मैं और मेरे” के साथ और ज़्यादा कि चाहत भी जुड़ गई है। विडम्बना यह है कि अब कोशिश के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता।

दो पहिये वाली गाड़ियों कि रफ्तार भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। अलग अलग कंपनियाँ ज़ोर शोर से इस प्रतियोगिता में जुटी हैं कि कौन सबसे पहले, और पहले से भी ज़्यादा तेज़ गाड़ी निकालता है। और हम ललचाई भरी निगाहों से उसके आने का इंतज़ार भी करते हैं। पुणे जैसे शहरों का हाल बेहाल इन्हीं दो पहियों कि गाड़ियों ने कर रखा है। मुसीबत यह है कि इसकी हमें आदत सी हो गई है। इसके विरोध में पुणे का एक युवा वर्ग एकत्र हो कर इसके खिलाफ अलग अलग तरीकों से प्रयास करता आया है। पर इन बड़ी कंपनियों कि काला बाजारी और साजिश में शामिल इस सरकार से लड़ना आसान नहीं। उनका कहना है कि इन दो पहियों कि गाड़ियों को कम कर अगर state transport कि बसों कि हालत सुधारी जाए और उन्हें इस्तेमाल में लाया जाए तो ऐसे शहरों को बड़ी राहत मिले। पर कौन सुनेगा उनकी और इन बातों समझेगा कौन।

रेल गाड़ी के मामले में तो सच कहूँ तो यह एक बहुत अव्यवहारिक कदम होगा अगर किसी ने उसका बहिष्कार कर दिया। मैं खुद भी यही चाहती हूँ कि एक जगह से दूसरी जगह मैं जल्द से जल्द पहुँच जाऊँ।

तो शायद संतोष इसी में हैं कि थोड़ी बहुत हालत को सुधारने कि कोशिश के साथ और इस छूक छूक गाड़ी की खराबियों को दरकिनार कर उसकी यात्रा का मज़ा लिया जाए।

1 comment:

  1. पूरे लेख से भयानक रूप से 'असहमत' हूँ.तुम कहो तो हर प्वाइंट पर अपनी असहमति दर्ज कर सकता हूँ.

    ReplyDelete